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ज्ञानसार
प्रीतिभाव पैदा हो, उसका आलम्बन ग्रहण करने की प्रवृत्ति करें और मन निःशंक, निर्भय बन उसमें स्थिर हो जाए, साथ ही ऐसी स्थिरता प्राप्त करें कि दूसरों को भी उसके प्रति आकर्षित करें।
रहित' निर्विकल्प समाधि-स्वरुप है । अर्थात् उसमें इच्छादि का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । परन्तु वैसे निर्विकल्प योगी-पुरुषों की सदैव प्रशंसा करे और खुद वैसा बनने के उपायों मे प्रवृत्ति करें । इससे मन स्थिरता प्राप्त करता रहे और वह ऐसा निरालम्बन योगी बन जाए कि अन्य जीवों को भी अपने योग की तरफ आकर्षित कर दे।
इन योगों से आत्मा में अनुकंपा, निर्वेद, संवेग और प्रशम भाव पैदा होते हैं; अर्थात् आत्मा का संवेदन ही ऐसा बन जाता है ।
दीन-दुःखी जीवों को देखकर, मन ही मन उनका दुःख-दर्द दूर करने की उत्कट भावना पैदा हो । द्रव्य से दुःखी जीवों का दुःख दूर करने की इच्छा प्रकट हो जाए कि वह दीन-दुःखियों की कभी उपेक्षा न कर सके ।
सांसारिक सुखों से विरक्त बन जाए। उसे वह कारावास समझे । निर्जन स्मशान समझे । सदा कर्म-बन्धनों से मुक्त होने की ही पैरवी करे । संसार के सुख भले ही चक्रवर्ती या इन्द्र के हों, भूल कर भी उनकी तरफ आकर्षित नहीं होता।
योगी का मन सदा-सर्वदा आत्मा की परिशुद्ध अवस्था प्राप्त करने के लिये तरसता है । 'मैं कब मोक्ष पाऊंगा ?' यह तमन्ना निरंतर बनी रहती है। सदैव वह मोक्ष-सुख की ओर ही आकर्षित होता है ।
उपशम का वह शान्त-प्रशान्त सागर होता है । कषायों का उन्माद उसके मन को स्पर्श तक नहीं कर सकता और ना ही उसे कभी अपने ध्येय से विचलित कर सकता है। उसका मुखमण्डल अहर्निश शान्त निश्चल भावों से देदीप्यमान होता है । इच्छादि योगों का यह फल है ।
अणुकंपा निव्वेओ, संवेगो होइ तह य पसमु त्ति । . एएसि अणुभावा, इच्छाईणं जहा संखं ॥-योगविशिका