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ज्ञानसार
इन पाँच योगों में पहले चार योग 'सविकल्प समाधि'-स्वरुप हैं जबकि पाँचवा योग 'निर्विकल्प-समाधि' स्वरुप है।
इन पाँचो प्रकार में पहला प्रकार 'आसन' है। प्रत्येक योगाचार्य ने योग का आरम्भ आसन से ही निर्दिष्ट किया है। अष्टांग योग में भी प्रथम स्थान आसन का ही है। 'आसन' के माध्यम से शारीरिक चंचलता, अस्थिरता और उद्विग्नता दूर करनी होती है । जब तक शारीरिक स्थिरता नहीं आती, तब तक मानसिक स्थिरता भी प्रायः असम्भव है।
हमारी समस्त धार्मिक क्रियायें, उदाहरणार्थ:सामायिक, चैत्यवंदन प्रतिक्रमण आदि में 'आसन' का महत्त्व है । सामायिक में सुखासन, पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठा जाय और स्वाध्याय, जाप व ध्यानादि क्रियायें सम्पन्न की जायें, तो उक्त क्रियायें निःसन्देह प्रभावोत्पादक सिद्ध होती हैं । प्रतिक्रमण में 'कायोत्सर्ग' किया जाता है, वह भी एक प्रकार का आसन ही है । अतः कायोत्सर्ग के दोष टालने का लक्ष्य होना चाहिये ।
ठीक उसी तरह मुद्राओं का भी लक्ष्य होना चाहिये । किस क्रिया में किस मुद्रा का प्रयोग किया जाए, उसका यथेष्ट ज्ञान होना आवश्यक है । वैसे ही सूत्रार्थ का पर्याप्त ज्ञान और उसका उपयोग चाहिए । उच्चारण भी शुद्ध होना चाहिए । हमारे सामने प्रतिमा / स्थापनाजी आदि जो आलम्बन हो, उसके प्रति दृष्टि स्थिर होना जरुरी है। इस प्रकार यदि धर्मक्रिया की जाये, तो क्रिया ही महान् योग बन जाती है । यही योग आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ देता है।
बैठने का ढंग नहीं, सूत्रोच्चारण में शुद्धि नहीं, अर्थोपयोग के प्रति उपेक्षाभाव, मुद्राओं का ख्याल नहीं और आलम्बन के संबन्ध में पूरी लापरवाही ! ऐसा योग आत्मा को मोक्ष के साथ नहीं जोड़ पाता ! अरे, योग के बल पर भोगप्राप्ति के नित्यप्रति जो स्वप्न देखते हैं, ऐसे रजो-तमो गुण से आच्छादित जीव योग की कदर्थना करते देखे जाते हैं ।
कर्मयोग द्वयं तत्र, ज्ञानयोग त्रयं विदुः । विरतेष्वेव नियमाद्, बीजमात्रं परेष्वपि ॥२७॥२॥