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________________ ४०१ अर्थ : उसमें सोदो कर्मयोग और शेष तीन ज्ञानयोग, जाननेवाले विरति वन्तों में अवश्य होते हैं, जबकि अन्यों मे भी बीजरूप हैं । योग विवेचन : 'ज्ञान- क्रियाभ्यां मोक्षः ' ज्ञान और क्रिया के संयोग से मोक्ष होता है । इन पाँच योगों में दो क्रियायोग हैं और तीन ज्ञानयोग । स्थान और शब्द, क्रियायोग हैं । अर्थ, आलम्बन और एकाग्रता ज्ञानयोग हैं । कायोत्सर्ग, पद्मासनादि आसन, योग मुद्रा, मुक्तासुक्ति- मुद्रा एवं जिनमुद्रा आदि मुद्राओं का समावेश क्रियायोग में है । यदि हम आसन और मुद्राओं की सावधानी बरते बिना प्रतिक्रमण, चैत्यवन्दनादि धार्मिक क्रियायें सम्पन्न करें, तो क्या वह क्रिया-योग कहलायेगा ? क्या हम क्रियायोग की भी सांगोपांग आराधना करते हैं ? प्रतिक्रमणादि में कायोत्सर्ग करते हैं, क्या वह नियमानुसार होता है ? कायोत्सर्ग कैसे किया जाय, इसका प्रशिक्षण लिये बिना कायोत्सर्ग करनेवाले क्या 'स्थान योग' की उपेक्षा नहीं करते ? अरे, उन्हें यह भी ज्ञात नहीं कि कायोत्सर्ग भी एक तरह का योग है ! पद्मासनादि आसन भी योग ही हैं । योगमुद्रादि मुद्रायें भी योग का ही प्रकार है। किस समय किन मुद्राओं का उपयोग करना चाहिये, इसका ख्याल कितने जीवों को है ? 'वर्ण-योग' की आराधना भी क्रिया योग है । सामायिकादि के सूत्रो का उच्चारण किस पद्धति से करते I हैं ? क्या उसमें शुद्धि का लक्ष्य है ? उनमें रही संप्रदायों (अल्पविराम, अर्धविराम और पूर्णविराम ) का ख्याल है ? क्या एक नवकारमन्त्र का उच्चारण भी शुद्ध है ? यदि इसी तरह स्थानयोग एवं वर्णयोग का पालन न करें और क्रियायें करते रहें, तो क्या क्रियायोग के आराधक कहलायेंगे ? - 'ज्ञान - योग' में प्रत्येक सूत्र का अर्थबोध होना नितान्त आवश्यक है । मानसिक स्थिरता और चित्त की प्रसन्नता क्रियायोग में तभी सम्भव है, यदि उसका सही-सही अर्थबोध होता हो । अर्थज्ञान इस तरह प्राप्त करना चाहिये कि, जिससे सूत्रों का आलम्बन लिये बिना अर्थों का संकलन अबाध रूप से चलता रहे और उसके भाव - प्रवाह में जीव अपने आप प्रवाहित हो उठे ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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