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२७. योग
यदि तुमने कभी किसी मुनि, योगी पहुँचे हुए सन्यासी अथवा विद्वान् अध्यापक के योगविषयक प्रवचन सुने होंगे, तो प्रस्तुत अष्टक निःसन्देह तुम्हारा वास्तविक मार्गदर्शन करेगा। आधुनिक युग में योग के नाम पर कई प्रकार की भ्रामक बातें देश-विदेश में प्रचलित-प्रसारित हैं । योग-संबंधित विविध प्रयोगों को परिलक्षित कर चित्र उतर रहे हैं । कामभोगी पाखंडी, योगी का स्वांग रच, योग-क्रियायें शिखा रहे हैं।
___इसे अवश्य पढो, एकाग्र-चित्त से इसका चिन्तन-मनन करो । प्रस्तुत प्रकरण के आठ श्लोक, शताब्दियों पूर्व एक निष्काम महर्षि की लेखनी से प्रसृत हैं। योग-विषयक तुम्हारा यथार्थ पथ-प्रदर्शन करते हुए अनन्य मार्ग-दर्शक सिद्ध होंगे।
मोक्षेण योजनाद् योगः सर्वोऽप्याचार इष्यते । विशिष्य स्थानवर्णाालिम्बनैकाग्रयगोचर : ॥२७॥१॥
अर्थ : मोक्ष के साथ आत्मा को जोड देने से समस्त आचार योग कहलाता है, विशेष रुप से स्थान (आसनादि), वर्ण (अक्षर), अर्थज्ञान, आलम्बन और एकाग्रता विषयक है ।
विवेचन : भोग और योग !
भोग पर से दृष्टि हटे तो योग पर दृष्टि जमे । जब तक भोग के भूतपलित जीव के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं, उस पर अपना जबरदस्त वर्चस्व जमाये बैठे हैं, तब तक योग-मार्ग दृष्टिगत होगा ही नहीं । सामान्यतः विषयभोगी योगमार्ग