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________________ अनुभव ३९७ बस, इतनी सी बात ! लेकिन प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने उसे शास्त्रदृष्टि से नहीं देखा और ना ही सुना ! तत्काल उन्होंने अपनी मनोभूमि पर शत्रु के साथ संघर्ष छेड दिया ! युद्धोन्माद से रुद्र रूप धारण कर दिया । घोर हिंसा का तांडव मच गया... और सातवीं नर्क की ओर ले जानेवाले कर्म-बन्धन का जाल गूंथने में प्रवृत्त बन गये ! उसी समय समवसरण में रहे भगवान महावीर प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की उक्त चर्मदृष्टि की अपरम्पार लीला शान्त भाव से देखते रहे ! उसी समवसरण में उपस्थित सम्राट श्रेणिक जब राजर्षि की घोर तपस्या की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगे तब भगवान ने केवल इतना ही कहा: "हे श्रेणिक! यदि इसी क्षण राजर्षि का अन्त हो जाएँ तो वह सातवीं नरक में जाएगा !" राजर्षि मुनिवेश में थे ! ध्यानस्थ मुद्रा में थे। कठोर तपश्चर्या के गजराज पर आरूढ थे... ! लेकिन थे शास्त्र-दृष्टि से रहित ! फल स्वरूप उनकी श्रमणशक्ति अधोगमन का निमित्त बन गयी ! लेकिन जैसे ही उन्हें 'शास्त्र-दृष्टि' प्राप्त हुई कि ध्यान में परिवर्तन आया ! शत्रु को मारने हेतु मुकुट लेने मस्तक की ओर दोनों हाथ गये और अपने मुंडित मस्तक का आभास होते ही, अविलम्ब दृष्टिपरिवर्तन हुआ । शास्त्र-दृष्टि ने उन्हें अधोगति के नरक-कुंड में गिरते हुए थाम लिया... । यकायक पूरे वेग से... और क्षणार्ध में ही उन्हें 'केवलज्ञान' की रमणीय भूमि पर ला रखा ! वे केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । अतः शास्त्रदृष्टि से शास्त्राध्ययन और चिंतन-मनन कर, उसके द्वारा विश्वदर्शन करने से ही परब्रह्म परमात्मावस्था को प्राप्त कर सकेंगे।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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