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________________ ३९६ ज्ञानसार कर विद्वता अर्जित करनेवाले जीव अनुभव दृष्टि से वंचित रह जाते है । ____शास्त्रों का ज्ञान इस दृष्टि से प्राप्त करना चाहिए कि 'शास्त्र' ही हमारी 'दृष्टि' बन जाएँ । 'चर्मदृष्टि' पर 'शास्त्रदृष्टि' की ऐनक ऐसी तो व्यवस्थित बैठ जानी चाहिए की जो कुछ देखें, सुनें-समझें और चिंतन-मनन करें उसका एकमेव आधार शास्त्र ही हो । लगातार चार-चार माह के उपवास करनेवाले मुनियों ने कुरगडु मुनि के पात्र में थूक दिया, तब कुरगडु मुनि ने उसे 'शास्त्रदृष्टि' में देखा था ! तपस्वियों के तिरस्कार-युक्त वाणी-शरों को शास्त्रदृष्टि से शान्त रह झेले थे। घृणायुक्त नयनबाणों का समता-भाव से सामना किया था ! (१) 'चर्मदृष्टि' ने जिसे 'थूक' बताया 'शास्त्र-दृष्टि' ने उसे 'घी' समझा ! 'यह तो रुखे-सूखे भोजन में मुनिश्री ने कृपा कर 'घी' डाल दिया है ! तपस्वियों के मुख का अमृत !' (२) चर्मदृष्टि से जो वचन असह्य पीडा के कारण थे, शास्त्रदृष्टि ने उन्हें 'पवित्र प्रेरणा का प्रवाह' माना ! 'संवत्सरी के पवित्र दिन भी मैं पेट भरनेवाला हूँ... मुझे इन तपस्वियों ने अनाहारी पद की प्रेरणा दी है।' (३) मुनियों के दुर्व्यवहार और अपमानास्पद प्रवृत्ति को चर्मदृष्टि जहाँ 'क्रोधी-मिथ्याभिमानी' समझती थी, वहाँ शास्त्र दृष्टि उन्हें मोक्ष-मार्ग के अनन्य यात्रिक निर्देशित कर रही थी ! मोक्षमार्ग के पथ प्रदर्शन मान रही थी ! शास्त्रदृष्टि के बल पर कुरगडु मुनि ने ज्यों ही अनुभव का अमृत-लाभ प्राप्त किया, कि शीध्र अनुभव-दृष्टि से उन्होंने विशुद्ध परम ब्रह्म का दर्शन किया ! ऐसा अनुपम कार्य करती है शास्त्रदृष्टि ! एक पाँव पर खड़े, दोनों हाथ आकाश की और उठाये तथा सूर्य की और निनिमेष दृष्टि से स्थिर देखते प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के कान पर जब राज-मार्ग से गुजरते सैनिकों के ये शब्द पडे : “देखो, तो विधि की कैसी घोर विडम्बना? बाल राजकुमार को छोड, यहाँ जंगल में प्रसन्न चन्द्र राजर्षि कठोर तपस्या में लीन हैं और वहाँ राजकुमार के काका उसका राज्य हडपने के फिराक में है !"
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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