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________________ अनुभव ३९५ निकल पडे उन बुद्धिशाली, दिग्गज पण्डितों को धन्यवाद दें या उनका धिक्कार करें ? कभी-कभार उक्त प्राध्यापक (भगवान ?) महोदय प्राकृतिक... नैसर्गिक कल्पनासृष्टि का सृजन, अपनी अनूठी प्रभावशाली साहित्यिक भाषा में करते हैं और उक्त कल्पना के माध्यम से आत्मदर्शन... आत्मानुभूति कराने का आडम्बर रचाते है । क्या विचार शून्यता = आत्मानुभूति ? क्या नैसर्गिक मानसिक कल्पनाचित्र मतलब आत्मानुभूति ? तब तो विचारशून्य एकेन्द्रिय जीवों को आत्मसाक्षात्कार हुआ समझना चाहिए और सदा-सर्वदा निसर्ग की गोद में किल्लोल । केलि करते पशु-पक्षियों को आत्मानुभूति के फिरस्ते समझने चाहिए ! तात्पर्य यह है कि आत्मानुभव सुषुप्तावस्था, स्वप्नावस्था और जागृतावस्था नहीं है, बल्कि इससे बिल्कुल भिन्न कोई चौथी दशा है। जिसकी प्राप्ति हेतु हमें सही दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिए । अधिगत्याखिलं शब्द-ब्रह्म शास्त्रादृशा मुनिः । स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति ॥२६॥८॥ अर्थ : मुनि शास्त्र-दृष्टि से समस्त शब्दब्रह्म को अवगत कर, स्वानुभव से स्वयं प्रकाश ऐसे परब्रह्म... परमात्मा को जानता है। विवेचन : "यदि अनुभव-दृष्टि से ही विशुद्ध आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार सम्भव है, तब फिर शास्त्रों का क्या प्रयोजन ? शास्त्राध्ययन, चिंतन मनन किसी काम का नहीं न ?" इस प्रश्न का यहाँ निराकरण किया गया है। शास्त्र-दृष्टि से समस्त शब्दब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना है और उस ज्ञान से परमात्म-स्वरुप का रहस्य समझना है ? बिना शास्त्र-दृष्टि के शब्द-ब्रह्म का ज्ञान असम्भव है और अनुभव-दृष्टि विकसित नहीं होती। शास्त्रों का अध्ययन और चिंतन-मनन अनुभव-दृष्टि के लिए आवश्यक है। हाँ, शास्त्राध्ययन का ध्येय 'अनुभव' होना चाहिए शास्त्रों की जलमें अटकने से कोई लाभ नहीं । यश-कीर्ति की पताका सर्वत्र लहराने के लिए शास्त्राध्ययन
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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