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ज्ञानसार
(२) स्वप्न के साथ अनुभव की तुलना कर सकते हैं ? स्वप्न भले कितना ही भव्य, सुन्दर, मनमोहक हो... फिर भी सिवाय कल्पना के उसमें वास्तविकता का अंश भी नहीं होता । जबकि अनुभवदशा में कल्पना का अंश भी नहीं होता ! अतः स्वप्नावस्था में भी अनुभव का समावेश असम्भव है, ना ही स्वप्नदशा को अनुभवदशा कह सकते ।
(३) जाग्रतावस्था भी कल्पना - शिल्प का ही सर्जन है। उसे अनुभव दशा नहीं कह सकते । अनुभवदशा इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न चौथी दशा ही है ।
विश्व में एक वर्ग ऐसा भी है, जो 'सुषुप्ति' को आत्मानुभव के रुप में समझता है । उसका कहना है : "शून्य हो जाओ, सभी इच्छा, आकांक्षा और अभिलाषाओं से मुक्त बन जाओ... और ऐसी अवस्था में जितनी अवधि तक रह सको तब तक रहो ! उस दौरान तुम्हें आत्मानुभव होगा !" सुषुप्तावस्था - गाढ निद्रा में कोई विचार नहीं होता, परन्तु इस अवस्था में तुम्हारा मन मोहशून्य भी नहीं होता । अल्पावधि के लिए मोह-मायादि के विकल्पों से मुक्त हो जाने मात्र से मोहावस्था दूर नहीं हो जाती। घंटे, दो घंटे के लिये शून्यता के समुद्र में गोता लगा देने से, भीतर में घरकर गयी मोहावस्था धुल नहीं जाती । बल्कि 1 शून्य में से वास्तविकता में पदार्पण करेत ही पुनः नारी, धन-सम्पत्ति, भोजन, परिवारादि के प्रति मोहजन्य वृत्तियाँ दुगुने वेग से उमड़ आती हैं। लेकिन अनुभवदशा में ऐसी स्थिति कभी नहीं बनती। अनुभवदशा में तो दिन-रात... निर्जन जंगल या नगर - परिसर में हर कहीं सदा-सर्वदा एक ही अवस्था... ! मोहशून्य अवस्था ! वहाँ होता है केवल वास्तविक आत्मदर्शन का अपूर्व आनन्द और एक - सी आत्मानुभूति !
शून्यावस्था में आत्म-साक्षात्कार की डिंगें हाँकनेवाले जब शून्यता के समुद्र में गोता लगाकर बाहर निकलते हैं, तब उनका मन संसार के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का भोगोपभोग करने के लिए, आनन्द लूटने के लिए कितने आतुर, अधीर एवं आकूल - व्याकूल होते हैं - इसका बीभत्स दृश्य तुम्हें 'आधुनिक भगवानों' के आश्रमों में दृष्टि गोचर होगा । तनिक वहाँ जाकर देखो ? भोगविलास और काम-वासना- प्रचुर उस जघन्य विश्व में 'आत्मानुभूति' की खोज में