________________
मग्नता
१७
विभाव में जाने के लिये उकसाया है । साथ ही उसके हाथों नानाविध गैर काम करवाये हैं । इतना ही नहीं, बल्कि उन गैर-कामों के संबन्ध में उसमें मिथ्या अभिमान की भावना भी कूट-कूट कर भर दी है । जैसे 'यह इमारत मैंने बनवायी है... सारी दौलत मैंने कमायी है... यह ग्रंथ मैंने तैयार किया है.... मेरे ही बलबूते पर सबकी जिन्दगी गुलजार है... ।' इत्यादि । *
लेकिन परमोपकारी विश्वोद्धारक तीर्थंकर भगवन्त के कारण आज उसे ( जीवात्मा को) बुरे कर्मों की सही परख हो गयी है । उन्होंने हमारी आत्मा को चतुर्विध संघ के हाथ सौंप दिया है । फलतः जीवात्मा को गुरुदेवों की अपूर्व कृपा से स्वभावदशा - ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय आत्मस्वरूप की प्रतीति हो गयी । उसमें रहे असीम आनन्द की अनुभूति हुई । परमात्मा तीर्थंकर देवों के द्वारा निर्दिष्ट जगद्-व्यवस्था और रचना समझ में आ गयी । अब भला, वह विभावदशा में किये गये कार्यों को किस दृष्टि से देखेगा ? वर्तमान में भी कई बार उसे विभावदशा के वशीभूत होकर कार्य करने पड़ते हैं । लेकिन यह करने में वह क्या अपना कर्तृत्व समझेगा ? नहीं, कभी नहीं । बल्कि वह हमेशा यह सोचेगा, 'मैं तो अपने शुद्ध गुणपर्याय का कर्ता हूँ, ना कि परपुद्गल के गुणपर्याय का । उसमें तो मैं सिर्फ निमित्त मात्र हूँ, ज्ञाता और दृष्टा हूँ ।
परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा ।
क्वामी चामीकरोन्मादाः, स्फारा दारादराः क्व च ॥ २॥४॥
अर्थ : परमात्मस्वरुप में लीन मनुष्य को पुद्गल - सम्बन्धी बात नीरस लगती है, तब भला उसे धन का उन्माद और परम सुन्दरी के मदहोश कर देनेवाले आलिंगनादिरुप आकर्षण क्यों होगा ?
विवेचन : परम आत्मस्वरूप में लीन जीवात्मा की दशा मायावी संसार के प्राकृत जीवों से - प्राणियों से बिल्कुल अलग होती है । वह प्रायः आत्मा के अनंत गुण- प्रदेश पर विचरण करने में, उस अद्भुत / अनोखे प्रदेश के सम्बन्ध में सही जानकारी प्राप्त करने में, उसकी अजीबो गरीब दास्ताँ सुनने और उसके अनादिकाल से चले आ रहे इतिहास को आत्मसात् करने में मग्न रहता है । पार्थिव/असार संसार में आज तक उसने न देखा हो, न सुना हो और न जाना