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ज्ञानसार
हो, ऐसा आश्चर्यकारक खेलतमाशा निहारने में/निकट से देखने में वह इस कदर
खो जाता है कि बाह्य जड पुद्गलों का शोरगुल और कोलाहल उसे आकुलव्याकुल कर देता है । संगीत के मधुर स्वर और सरोद उसके लिये सिर्फ हर्षविषाद का कोलाहल बनकर रह जाता है । नवयौवनाओं के अंग-प्रत्यंग का निखार उसके लिए धधकता ज्वालामुखी बनकर रह जाता है । मनोहारी पुष्प और इत्र आदि की सुगंधित सौरभ में उसे सड़े-गले श्वान-फलेवर की बदबू का आभास होता है । बत्तीस व्यंजनों से युक्त भोज्य-पदार्थ उसके लिये 'रिफाईन' की गयी विष्टा से अधिक कुछ नहीं होते । रूपसुन्दरियों के दिल गुदगुदानेवाले मोहक स्पर्श और जंगली भालू के खुरदरे स्पर्श में उसे कोई अन्तर नज़र नहीं आता । ऐसी जीवात्मा भूलकर भी कभी शब्द, सौन्दर्य, संगीत, रस और गन्ध की क्या प्रशंसा करेगी ? हर्गिज नहीं करेगी, ना ही कभी सुनेगी । उसके लिए दोनों नीरस जो हैं।
तब भला वह सोने-चांदी के ढेर को देखकर मुग्ध हो जाएगा क्या ? अरे ! सोने-चांदी की चमक तो उसे आकर्षित कर सकती है, जो शब्द, सौंदर्य, संगीत, रस और गन्ध का रसिया हो, लालची और लम्पट हो ।
ऐसी स्थिति में पूर्ण यौवना नारी को अपने बाहुपाश में लेकर आलिंगन बद्ध करने की चेष्टा करना तो दूर रहा, ऐसी कल्पना करना भी उसके लिए असम्भव है।
कंचन और कामिनी के प्रति नीरसता / उपेक्षाभाव, यह ब्रह्ममग्न आत्मा का लक्षण है और यही ब्रह्ममस्ती का मूल कारण है ।
तेजोलेश्या-विवृद्धिर्या साधोः पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥२॥५॥
अर्थ : 'भगवती सूत्रादि' ग्रन्थों में साधु / श्रमण संबंधित जिस तेजोलेश्या की वृद्धि का उल्लेख, मासादि चारित्र-पर्याय की वृद्धि को लेकर किया गया है, वह ऐसे ही स्वनामधन्य ज्ञानमग्न जीवात्मा में सम्भव है।
विवेचन : ज्ञानमूलक वैराग्य से प्रेरित होकर जो जीवात्मा संसार का