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ज्ञानसार
के अभाव में दीन बन भटकती फिरेगी? क्यों शोक-विह्वल होगी? और वैषयिक सुख मिलने पर संतुष्ट भी क्यों होगी ? हमें समझ लेना चाहिये कि यदि हम पौद्गलिक सुख की टोह में घूम रहे हैं, उसे पाने के भ्रम में संसार में भटक रहे हैं और उसके न मिलने पर मायूस बन जाते हैं, हताश हो जाते हैं, आक्रन्दन कर उठते हैं, जबकि पाने पर आनन्दविभोर बन नाच उठते हैं, तो निःसन्देह हम अपनी स्वाभाविक ज्ञानानन्द-वृत्ति के साथ तादात्म्य साधने में असमर्थ रहे हैं और पर ब्रह्म का आनन्द अनुभव नहीं कर पाये हैं । अवश्य हमारे में कोई कमी, त्रुटी रह गयी है।
स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्वावलोकिनः । कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते ॥२॥३॥
अर्थ : स्वाभाविक आनन्द में तल्लीन हुए और स्याद्वाद के माध्यम से जगततत्त्व का परीक्षण कर अवलोकन करनेवाले जीवात्मा को अन्य प्रवृत्तियों (भावों)का कर्तृत्व नहीं होता है, परन्तु साक्षीभाव शेष रहता है।
विवेचन : किसी भले सज्जन मनुष्य को दुष्टों की टोली ने अपने जाल में फंसा दिया । उसे पूरी तरह से अपने खाके में ढाल दिया। उसमें और उसकी प्रवृत्तियों में आमूल परिवर्तन कर दिया । अपने मनपसंद सभी कुकर्म उससे करा दिये । वर्षों बीत गये इस घटना को । एक बार जाने-अनजाने वह एक परमोपकारी महापुरुष के हाथ लग गया । उन्होंने उसे दुष्ट लोगों का रहस्य बताया। उनके चंगुल से उसे आजाद करा दिया और अच्छे सज्जन लोगों के हाथ सौंप दिया। तब वह पीछे मुडकर अपने भूतकाल को देखता है । वेदना और पश्चात्ताप से भर जाता है। वह मन ही मन सोचता है : "सच में तो इन दुष्कार्यो का मैं कर्ता नहीं हूँ। मैं भला सज्जन होकर ऐसे अघोरी कृत्य क्या कर सकता हूँ? यह सर्वथा असम्भव है, बल्कि ये दुष्कार्य तो उन्हीं दुष्टों के ही हैं । मैं तो सिर्फ उसका निमित्त बना हूँ।" वह भूलकर भी अपने भूतकालीन कार्यों को लेकर अभिमान नहीं करेगा, बड़ी-बड़ी बातें नहीं करेगा।
इसी तरह जीवात्मा भी युग-युगान्तर से बुरे कर्मों के चंगुल में फँसा हुआ है । दुष्कर्मों ने उसमें आमूल परिवर्तन कर दिया है। स्वभाव को छोडकर