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________________ मग्नता असीम शान्ति की अनुभूति होगी । एक बार प्रवेश करने के पश्चाद् बाहर आने की भावना नहीं होगी और यदि निकलना भी पड़े तो शीघ्रातिशीघ्र दुबारा प्रवेश करने की आन्तरिक लगन जग पड़ेगी । जहाँ ज्ञानानन्द में ही पूर्ण विश्राम प्रतीत होता है और पुद्गलानन्द नीरी वेठ-मजदूरी की तरह बेतुका लगता है, वही तो ज्ञानमग्नता, ज्ञानतल्लीनता है। यस्य ज्ञानसुधासिन्धौ, परब्रह्मणि मग्नता । विषयान्तरसंचारस्तस्य हालाहलोपमः ॥२॥२॥ अर्थ : ज्ञान रूपी अमृत के अनंत, अथाह समुद्र ऐसे परमात्मा में जो लीन है, उसे अन्य विषयों में प्रवृत्त होना हलाहल ज़हर लगता है । विवेचन : जलक्रीडा करने के लिये तुमने कभी तूफानी दरिये में छलाँग लगायी है ? तैरने के इरादे से किसी जलप्रवाह । नदी में कूदे हो ? स्वीमींग बाथ (Swimming bath) में प्रवेश किया है ? तैरने के शौकीन अथवा जलक्रीडा के रसिये को समुद्र, सरोवर, नदी या स्वीमींग बाथ में नहाने का आनन्द लूटते समय यदि कोई आकार बीच में ही रोक दे अथवा उसकी क्रिया में बाधा डाल दे, तब जैसे उसे जहर-सा लगता है, ठीक उसी भाँति जब जीवात्मा अपने स्वाभाविक ज्ञानानन्द में सराबोर हो, पूर्ण रूप से लीन बनकर आनन्द में आकण्ठ डूबा अठखेलियां करता हो, ऐसे प्रसंग पर यदि बीच में ही पौद्गलिक विषय घुसपैठ कर लें, तब उसे वे विषय ज़हर से लगते हैं। क्योंकि ज्ञानानन्द की तुलना में उसके (जीवात्मा के) लिये पौद्गलिक आकर्षण, सुख-समृद्धि आदि विषय कोई विसात नहीं रखते । पौद्गलिक सुख उसे मोहपाश में बाँध नहीं सकते । उसका रसभीना व्यवहार जीवात्मा के लिये नीरस और बेतुका होता है । पुद्गल का मृदु स्पर्श उसमें रोमांच की लहर पैदा नहीं कर सकता । उसके मोहक सूर उसे हर्ष विह्वल करने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं। मतलब, पौद्गलिक शब्द रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के टपक पड़ने पर, टकराने से वह कंपित हो उठता है । जिस तरह की स्थिति विषधर साप को घर में आते देखकर होती है । इस तरह स्वाभाविक आनन्द में तल्लीन आत्मा, भला क्यों कर खुद ही माया के बाजार में पौद्गलिक विषयों की प्राप्ति हेतु जाएगी ? क्यों विषयसुख
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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