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ज्ञानसार
अर्थ : जो आत्मा इन्द्रियसमूह को विषयों से निवृत्त कर, अपने मन को आत्म-द्रव्य में एकाग्र / लीन बना, चैतन्य स्वरुप आत्मा में विश्राम करती है, वह मग्न कहलाती है ।
विवेचन : पूर्णता के मेरुशिखर पर चढ़ने से पूर्व ज्ञानानन्द की तलहटी में जरा रुक जाओ । अपनी आँखे बन्द करो । अपनी चैतन्यावस्था का जायका लो । बाह्य पदार्थों में रमण करनेवाली अपनी इन्द्रियों को निग्रहित - संयमित कर, उनमें रही शक्तियों को चैतन्य दर्शन के महत् कार्य में लगा दो । उसकी ओर प्रवृत्त कर दो । परभाव में भटकते मन की गति को रोक दो और उसे स्वभाव में रमण करने का / लीन होने का निर्देश दो ।
चिन्मात्र में विश्रान्ति ! मतलब ज्ञानानन्दमय विश्रांति ! कैसा प्रशस्त, अद्भुत और श्रेष्ठ विश्राम गृह ! अनंतकालीन भव - परिभ्रमण के दौरान ऐसा अनोखा विश्रामगृह कहीं देखने को नहीं मिला ! बल्कि वहाँ तो ऐसे विश्रामगृह मिले कि उनको विश्रामगृह कहने के बजाय अशान्तिगृह अथवा उत्पातगृह की संज्ञा दें, तो भी अतिशयोक्ति न होगी साथ ही वहाँ कलह, अराजकता, संताप और शोक के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ।
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आज तक जीवात्मा ने परभाव को, संसार के पौद्गलिक विषयों को ही विश्रामगृह का लुभावना नाम देकर वहाँ आश्रय लिया है। अपने बाह्य रूपरंग से आकर्षक बने ये विश्रामगृह सृष्टि के प्राणी मात्र पर अनोखा जादू कर गये हैं। अपनी रूप-सज्जा के बल पर इन्होंने सबको अपनी मुठ्ठी में कर लिया है। फलतः आनन्द की परिकल्पना करते हुए जो जीव उसमें प्रवेश करते हैं, वे चीखते-चिल्लाते, आक्रन्दन करते बाहर आते नजर आते हैं । वहाँ सर्वस्व लूट लिया जाता है और धकियाते हुए उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है ।
ज्ञानानन्द का विश्रांतिगृह अपूर्व ही नहीं, अपितु अनुपम है । हालांकि उसमें प्रवेश पाने के लिये जीवात्मा को प्रयत्नों की पराकाष्ठा करनी पड़ती है । भगीरथ प्रयत्न करने होते हैं। उसके लिये पौद्गलिक विषयों से युक्त विश्रांतिगृहों का क्षणभंगुर सुख -ऐश्वर्य और आनन्द भूल जाना पड़ता है। एक बार प्रवेश मिल जाए, फिर तो आनन्द ही आनन्द ! सर्वत्र परमानन्द की शीतल छाया ही मिलेगी।