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अनुभव
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पर प्रयाण कर और आत्मानुभूति कर दुःख अशान्ति के गहराये बादलों को छिन्नभिन्न करना यही श्रेष्ठ सार है और परमार्थ है । 'अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय करने में आज तक दिग्गज पण्डित और बुद्धिमान सफल नहीं हुए हैं !' कहकर ग्रन्थकार ने हमें अपना मार्ग परिवर्तित करने की प्रेरणा दी है। साथ ही सुयोग्य मार्गदर्शन किया है और हमें आत्मानुभव के प्रशस्त-मार्ग पर निरंतर गतिशील होने के लिये प्रोत्साहित किया है । शास्त्र और विद्वान् तो मात्र दीप-स्तम्भ हैं ! अतः सिर्फ उनसे जुड़े रहने से कार्य सिद्ध नहीं होता। साथ उनके मार्गदर्शन में हमें अपना मार्ग खोजना है
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केषां न कल्पनादव शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी ! विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ॥२६॥५॥
अर्थ : किस की कल्पना रुपी कलछी शास्त्र रुपी खीर में प्रवेश नहीं कर सकती ? लेकिन अनुभव रुपी जीभ से शास्त्रास्वाद को जाननेवाले विरले ही होते हैं ।
• विवेचन : मान लो कि गृह कार्य में सदैव खोयी भारतीय नारी को अनुभव - ज्ञान का विज्ञान न समझाते हो, इस तरह पूज्य उपाध्यायजी महाराज रसोईघर के उपकरणों को माध्यम बनाकर समझाने बैठ जाते हैं !
चुल्हे पर उफनती खीर को देखो ! उसमें कलछी डाल कर तुम खीर को अच्छी तरह से हिला सकते हो। उसे जलने नहीं देते... लेकिन कलछी से खीर हिलाने मात्र से तुम उसका स्वाद ले सकते हो ? नहीं, यह असम्भव है ।
खीर का स्वाद लेने के लिए तो उसे जीभ पर रखना पड़ता है ! फलतः जीभ और खीर का संयोग होता है और बडे चाव से चटकारे लेते हैं, तब उसकी रसानुभूति होती है !
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शास्त्र खीर का भोजन है,
कल्पना (तार्किकता) कलछी है,
और अनुभव जीभ है !