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________________ ३९० ज्ञानसार उपाध्यायजी महाराज फरमाते हैं: "तार्किक बुद्धि से शास्त्रों को उलटतेपुलटते रहोगे, उससे कोई शास्त्रज्ञान का रसास्वाद अनुभव नहीं कर सकोगे। इतना ही नहीं, बल्कि शास्त्रों को तार्किकता के पडले में तौलने में ही जीवन पूर्ण हो गया तो अंतिम समय खेद होगा कि "सचमुच मैं दुर्भागी - अभागा हूँ कि कडी महेनत कर खीर पकायी, लेकिन उसका स्वाद लूटने का मौका ही न मिला !" खीर इसलिये पकायी जाती है कि उसका यथेष्ट उपभोग ले सकें । जी भरकर रसास्वादन कर सकें । कलछी तो केवल साधन है खीर पकाने का । एक साधन के रुप में वह अवश्य महत्त्वपूर्ण है ! उक्त साधन से जब खीर तैयार हो जाएँ, हमारा पूरा लक्ष्य खीर की ओर हो, ना कि कलछी की और । यहाँ तार्किकता की मर्यादा स्पष्ट कर दी गयी है। शास्त्रों का अर्थ निर्णय हो गया कि भोजन तैयार हो गया ! तत्पश्चात् कलछी को एक ओर रख देना चाहिए। तार्किकता के लिए कोई स्थान नहीं ! फिर तो अर्थ निर्णय का रसास्वादन करने हेतु उसे अनुभव - जीभ पर रख दो और चटकारे लेते हुए उसका यथेष्ट रसास्वादन करो । ग्रन्थकार ने यहाँ शास्त्रज्ञान एवं 'अनुभव' का पारस्परिक संबन्ध बताया है। खीर के बिना मनुष्य उसके रसास्वादन की मौज नहीं लूट सकता । जीभ कितनी भी अच्छी हो, लेकिन यदि खीर ही न हो तो ? ठीक उसी तरह शास्त्रज्ञान के अभाव में अनुभव की जीभ भला क्या कर सकती है ? अतः शास्त्रज्ञान की खीर पकाना नितांत आवश्यक है । उसकी उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा । खीर की तरह कलछी का भी अपना महत्त्व है। खीर की हंडिया को चुल्हे पर रख देने से ही खीर तैयार नहीं होती। बल्कि वह जल जाती है और बेस्वाद भी हो जाती है। अतः उसे कलछी से निरंतर हिलाते रहना चाहिए । ठीक उसी तरह, बिना तार्किकता से शास्त्र - ज्ञान की खीर पका नहीं सकते। जब तक शास्त्रार्थ के ज्ञान की खीर नहीं पकती तब तक तार्किकता की कलछी से उसे लगातार हिलाते रहना चाहिए और खीर के पकते ही, कलछी को एक ओर रख दो ! तब जीभ को तैयार रखो... रसास्वादन और रसानुभूति के लिए ! घरेलु भाषा के माध्यम से उपाध्यायजी ने 'अनुभव की कैसी स्पष्ट
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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