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________________ अनुभव ३८७ होता है । साथ ही, आत्मा की अनुभूति का उसे ऐसा तो असीम आनन्द होगा, जिस की तुलना में दूसरे आनन्द तुच्छ लगेंगे । परमात्म स्वरुप की प्राप्ति के लिये आत्मानुभव के बिना अन्य सब प्रयत्न व्यर्थ हैं। ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात् तेषु निश्चयः ॥२६॥४॥ अर्थ : यदि युक्ति से इन्द्रियों को अगोचर पदार्थों का रहस्य ज्ञान हो सकता तो पण्डितों ने इतने समय में अतीन्द्रिय पदार्थों के सम्बन्ध में निर्णय कर लिया होता। विवेचन : विश्व में दो प्रकार के तत्त्व विद्यमान हैं : - इन्द्रियों से अगोचर - इन्द्रियातीत और - इन्द्रिय गोचर, - इन्द्रिय गम्य । जिस तरह समस्त विश्व इन्द्रियातीत नहीं है, ठीक उसी तरह सकल विश्व इन्द्रियों द्वारा जाना नहीं जा सकता ! विश्व सम्बंधित ऐसी कई बातें हैं, जिनका साक्षात्कार हमारी अथवा अन्य किसी की भी इन्द्रियों के द्वारा नही हो सकता। ऐसे ही तत्त्व और पदार्थों को 'अतींद्रिय' कहा गया है। ऐसे अतींद्रिय पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का निर्णय मानव किस तरह कर सकता है ? भले ही वह विद्वान् हो या अत्यन्त बुद्धिमान ! विद्वत्ता अथवा बुद्धि, अतीन्द्रिय पदार्थों का दर्शन नहीं करा सकती । तब क्या यह माना जाएँ कि आजपर्यंत इस धरती पर विद्वानों और बुद्धिशालियों का जन्म ही नहीं हुआ? क्या वे एकाध अतीन्द्रिय पदार्थ का निर्णय सर्व-सम्मति से नहीं कर सके ? आज के युग में किसी भी बात अथवा घटना को तर्क या बुद्धि के माध्यम से समझने का आग्रह बढ़ता आ रहा है। बुद्धि और तर्क से समझा जाए और इन्द्रियों से जिस का अनुभव किया जा सकें उसे ही स्वीकार करने की वत्ति प्रबल होती जा रही है। ऐसे समय पूज्य उपाध्यायजी महाराज का यह कथन प्रकाशित करना आवश्यक है !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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