SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानसार आत्मा को समझा विशुद्ध अनुभव से । आत्मा का अनुभव किया इन्द्रियों के उत्माद से मुक्त हो कर । आत्मा को पा लिया शास्त्र और तर्क से ऊपर उठकर! जिस ने आत्मा को जानने-समझने और पाने का मन ही मन दृढ़ संकल्प किया है उसे इन्द्रियों के कर्णभेदी कोलाहल को शान्त-प्रशान्त करना चाहिए । किया भी, इन्द्रिय को हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहिए ! शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श की दुनिया से मन को दूर-सुदूर अनजाने प्रदेश में ले जाना चाहिए। तभी विशुद्ध अनुभव की भूमिका का सर्जन होता है । साथ ही, आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसीको जानने समझने की कामना नहीं होनी चाहिए । आत्मा के अलावा दूसरे को पहचान ने जिज्ञासा नहीं होनी चाहिए, आत्म-प्राप्ति के सिवाय अन्य कोई प्राप्ति की तमन्ना नहीं चाहिए जब तक आत्मानुभव का पावन क्षण प्रकट होना दुर्लभ है। ____ आत्मानुभव करने हेतु इस प्रकार का जीवन-परिवर्तन किये बिना अन्य कोई मार्ग नहीं । इसके लिए गिरिकन्दरा अथवा आश्रम-मठों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि आवश्यकता है अन्तरंग साधना की, शास्त्रार्थ और वितंडावाद-वादविवाद से उपर उठने की और शंका-कुशंका तथा तर्क-कुतर्क के भँवर से बहार निकलने की। साथ ही, आत्मानुभव करने के लिए आत्मानुभवियों के सतत संपर्क और संसर्ग में रहने की जरूरत है। आसपास की दुनिया ही बदल जानी चाहिए । सारी आशा-आकांक्षाएँ, कामनाएँ और अभिलाषाओं को जमीन में गाड देना चाहिए! इस तरह किया गया आत्मानुभव निःसंदेह भवसागर से पार लगाता है। हाँ, आत्मानुभव का ढोंग करने से बात नहीं बनेगी ! प्रतिदिन विषयकषाय और प्रमाद में लिप्त मानव, एक-आध घंटे के लिए एकांत स्थान में बैठ, विचारशन्य बन और 'सोऽहं' का जाप जप, यह मान लें कि उसे आत्मानुभव हो गया है, तो वह निरी आत्म-वंचना है। जबकि आत्मानुभवी का समग्र जीवन ही परिवर्तित हो जाता है, उसमें आमूलाग्र परिवर्तन आ जाता है । उसके लिए विषय, विष का प्याला और कषाय फणिधर की प्रतिकृति प्रतीत होते हैं । प्रमाद उससे कोसों दूर भागेगा । आहार-विहार में वह सामान्य मनुष्य से बहुत उंचा उठा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy