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________________ अनुभव ३८५ तोड दो कि दुबारा अपनी टाँग अडाकर निर्धारित कार्यक्रम में विघ्न नहीं करें। इतनी निर्भयता, दृढता और खुमारी के बिना अनुभव का शिखर सर करने की कल्पना करना निरी मूर्खता है । अतीन्द्रियं परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं विना ! शास्त्रयुक्तिशतेनापि न गम्यं यद् बुधा जगुः ॥२६॥३॥ अर्थ : पण्डितों का कहना है कि इन्द्रियों से अगोचर परमात्म-स्वरुप विशुद्ध अनुभव के बिना समझना असम्भव है, फिर भले ही उसे समझने के लिए तुम शास्त्र की सैंकडों युक्तियों का प्रयोग करो । विवेचन : शुद्ध ब्रह्म ! विशुद्ध आत्मा ! इन्द्रियों की इतनी शक्ति नहीं कि वे शुद्ध ब्रह्म को समझ सकें । किसी प्रकार के आवरण-रहित विशुद्ध आत्मा का अनुभव करने की क्षमता बेचारी इन्द्रियों में कहाँ सम्भव है ? अर्थात् कान शुद्ध ब्रह्म की ध्वनि सुन न सके, आँखें उसके दिव्य रुप को देख न सकें, नाक उसकी मधुर सुरभि सूंघ न सकें, जिह्वा उसका स्वाद न ले सकें और चमडी उसका स्पर्श न कर सके ! शास्त्रों की युक्ति-प्रयुक्तियाँ और तर्क भले ही आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करें, बौद्धिक कुशाग्रता भले ही नास्तिक-हृदय में आत्मा की सिद्धि प्रस्थापित कर दें, लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि आत्मा को जानना यह शास्त्र के बस की बात नहीं है। जानते हो, शास्त्र और बुद्धि का आधार लेकर राजा प्रदेशी की सेवा में उपस्थित महानुभाव कैसे निस्तेज, निष्प्राण बन गये थे? लाख प्रयत्न के बावजूद भी वे शास्त्र और बुद्धि के बल पर राजा प्रदेशी को आत्मा की वास्तविक पहचान नहीं करा सके और फलस्वरुप इन्द्रियों के माध्यम से आत्मा को पहचान ने के हठाग्रही राजा प्रदेशी ने कुपित हो, न जाने कैसा जुल्म गुजारा था? लेकिन जब केशी गणधर से उसकी भेंट हुई, इन्द्रियों को अगोचर, इन्द्रियों से अगम्य आत्मा का दर्शन कराया कि राजा प्रदेशी, राजर्षि प्रदेशी में परिवर्तित हो गया ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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