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________________ ३८२ ज्ञानसार भगवान्, हरिभद्रसूरीश्वरजी ने अनुभव के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है : (१) यथार्थ वस्तु स्वरुप का ज्ञान, (२) पर-भाव में अरमणता, (३) स्वरुपरमण में तन्मयता । सारे जगत के पदार्थ जिस स्वरुप में हैं, उसी स्वरूप में ज्ञान होता है... ज्ञान में राग-द्वेष का मिश्रण नहीं होता ! आत्मा से भिन्न, अन्य पदार्थों में रमणता नहीं होती ! योगी को तो आत्म-स्वरूप की ही रमणता होती है । उसका देह इस दुनिया की स्थूल भूमिका पर होता है और उसकी आत्मा दुनिया से परे सूक्ष्मातिसूक्ष्म भूमिका पर आरुढ होती है। ___ अनुभवी आत्मा की स्थिति का गम्भीर शब्दों में किया गया यह संक्षिप्त लेकिन वास्तविक वर्णन है । हम स्वरुप में रमणता इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि परभाव की रमणता में सिर से पाँव तक सराबोर हो गये हैं और परभाव की रमणता यथार्थ वस्तु-स्वरूप के अज्ञान को आभारी है । जिस गति से वस्तुस्वरुप--विषयक अज्ञान दूर होता जाएगा, उस गति से आत्म-रमणता आती रहेगी और परभाव में भटकने की क्रिया क्रमाशः कम होती जाएगी । फलतः 'अनुभव' तरफ की उर्ध्वगामी गति शुरु होगी। शाश्वत... परम ज्योति में विलीन होने की गहरी तत्परता प्रकट होगी और तब जीवन-विषयक जड़ता का उच्छेदन कर अनुभव के आनन्द को वरण करने का अप्रतिम साहस प्रकट होगा । ऐसी स्थिति में अज्ञान के निबिड़ अन्धकार तले दबी चेतना, ज्ञानज्योति की किरणों का प्रसाद प्राप्त कर परम तृप्ति का अनुभव करेगी । व्यापारः सर्वशास्त्राणां दिकप्रदर्शनमेव हि । पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ॥२६॥२॥ अर्थ : वस्तुतः सर्व शास्त्रों का उद्यम दिशा-दर्शन कराने का ही है। लेकिन सिर्फ एक अनुभव ही संसारसमुद्र से पार लगाता है । विवेचन : न जाने कैसा कर्कश कोलाहल मचा है ?
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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