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अनुभव
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शास्त्रार्थ और शब्दार्थ के एकांतिक आग्रह ने हलाहल से भी भयंकर विष उगल दिया है... और इसके फूत्कार साक्षात् फणिधर के फूत्कारों को भी लज्जित कर रहे हैं... । कोई कहता हैं : "हम ४५ आगम मानते हैं !' कोई कहता है : "हम ३२ आगम ही मानते हैं !" जबकि कुछ का कहना है : “हम आगम ही नहीं मानते !"
कैसा घोर कोलाहल ? और किसलिये ? क्या उनके द्वारा मान्य शास्त्र उन्हें भव-पार लगानेवाले हैं ? क्या शास्त्र उन्हें निर्वाण-पद के अधिकारी बनानेवाले हैं ? यदि शास्त्रों के बल पर ही भव-सागर पार उतरना सम्भव होता तो आज तक हम यों भटकते नहीं ! क्या भूतकाल में कभी हम शास्त्रों के ज्ञाता, निर्माता और पण्डित नहीं बने होंगे? अरे, नौ 'पूर्व' का ज्ञान प्राप्त किया था, फिर भी उक्त पूर्वो का ज्ञान, 'शास्त्रज्ञान' हमें भवपार नहीं उतार सका ! भला, क्यों? इस पर कभी गहरायी से सोचा है ? चिंतन-मनन किया कभी कारण जानने का? तब शास्त्र को लेकर शोरगुल मचा, अशान्ति क्यों फैला रहे हो ? शास्त्र का भार उठाकर भव-सागर में डूबने की चेष्टा क्यों कर रहे हो ? शास्त्र तुम्हें अनंत, अव्याबाध सुख कभी नहीं देगा।
मेरे इस कथन को शास्त्र के प्रति अरूचि अथवा उसकी पवित्रता का अपमान न समझो... बल्कि उसकी मर्यादा का भान कराने के लिए मैं यह सब कह रहा हूँ ! शास्त्र पर ही दार-मदार बांधे बैठे तुम्हें, अपनी जडता को तिलाञ्जलि देने के लिए ही सिर्फ कह रहा हूँ।
शास्त्र ? इस का कार्य है मार्गदर्शन देना, दिशा-दर्शन कराना । यह तुम्हें सही और गलत दिशा का अहसास कराएगा ! इससे अधिक वह कुछ नहीं करेगा।
शास्त्रों के उपदेश हमारी आत्मभूमि पर हकार भरते भले ही घावा बोल दें लेकिन विषय-कषाय का तोपखाना क्षणार्ध में ही आग उगलते हुए उनको धराशायी कर देता है । उनका नामोनिशान शेष नहीं रखता ! निगोद में मूच्छित पडे किसी चौदह पूर्वघर को पूछकर देखो कि उनका सर्वोत्कृष्ट शास्त्रज्ञान उन्हें क्यों नहीं बचा सका? विषय-कषाय के मिथ्याभिमान से छूटा तीर जब सीना भेद कर आर-पार हो जाता है तब शास्त्र का कवच तुच्छ सिद्ध होता है। अतः