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अनुभव
___ ३८१ "गुरूदेव, ध्यानस्थ अवस्था में मुझे अद्भुत अनुभव होते हैं !"
"किस तरह के अनुभवल ?" - "कभी-कभी मुझे अपने चारों ओर लाल-लाल रंग फैले नजर आते हैं। कभी भगवान श्री पार्श्वनाथ की मनोहारी मूर्ति के दर्शन होते हैं, तो कभी-कभार मैं किसी अज्ञात अपरिचित प्रदेश में अपने आपको भ्रमण करता महसूस करता हूँ... !" इस तरह उन्होंने ध्यान में स्फुरित विविध विचार... आदि आत्मानुभव कह सुनाये ! लेकिन ग्रन्थकार को ऐसे अनुभव भी यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं । ग्रन्थकार तो 'अनुभव-ज्ञान' स्पष्ट करना चाहते हैं ! उसे समझाने के लिए और स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं :
संध्या तुमने देखी है ? क्या उसे दिन कहोगे ? या फिर उसे रात्री कहोगे? नहीं ! यह सर्वविदित है कि संध्या, दिन-रात से एकदम भिन्न है । ठीक उसी तरह अनुभव भी श्रुतज्ञान नहीं है, ना ही केवलज्ञान ! वह इन दोनों से बिल्कुल भिन्न है ! हाँ, वह केवलज्ञान के सन्निकट अवश्य है ! सूर्योदय के पूर्व अरुणोदय होता है न ? बस, हम अनुभव को, सिर्फ केवलज्ञान रुपी सूर्योदय के पूर्व का अरूणोदय कह सकते हैं ! अर्थात् वहाँ मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न चमत्कार नहीं होता ! बुद्धि-मति की कल्पनासृष्टि नहीं होती
और शास्त्रज्ञान के अध्ययन... चिंतन... मनन से पैदा हुए रहस्यों का अवबोध नहीं होता । 'मेरी बुद्धि में यह आता है अथवा अमुक शास्त्र में यों कहा गया है,' या 'मुझे तो अमुक शास्त्र का यह रहस्य समझ में आता है,' आदि सारी बातें 'अनुभव' से बिलकुल परे हैं । जबकि वास्तविकता यह है कि अनुभव तर्क से कई गुना उच्च स्तर पर है। अनुभव शास्त्रों के ज्ञान तले दबा हुआ नहीं है और ना ही बुद्धि अथवा शास्त्र से समझ में आये ऐसा है।
सावधान, किसीको अनुभव की बात तार्किक ढंग से समझाने का प्रयत्न न करना । हमेशा समझने और समझाने के लिए बुद्धि-मति, ज्ञान और तर्क... की आवश्यकता रहती है, जबकि 'अनुभव' दूसरों को समझाने की बात नहीं
. 'यथार्थवस्तुस्वरुपोपलब्धिपरभावारमणतदास्वादनैकत्वमनुभवः ।'