________________
परिग्रह-त्याग
३७९
सहस्त्रावधि लावण्यमयी नारी-समुदाय के मध्य आसनस्थ, वैभव के शिखर पर आरूढ, मणि-मुक्ता जिड़चित सिंहासन... रत्न जडित स्तंभो से युक्त भव्य महल, बहुमूल्य वस्त्राभूषण... आदि से घिरा हुआ होने के उपरान्त भी जिसका अन्तःकरण 'नाहं पुद्गलभावानांकर्ता कारयिताऽपि च' इस भाव से आकण्ठ भरा हुआ है, जो त्याग और तपश्चर्या के लिये अधिर, आकुल-व्याकुल हैं और चार गति के सुखों से सर्वथा निर्लेप हैं, जिसकी दृष्टि में कंचन, कथीर समान है, सोना-चांदी-मिट्टी समान है और जिसे शिव, अचल, अरुज, अनंत, अक्षय, अव्याबाध मोक्ष के बिना ग्रन्थ किसी चीज की लालसा नहीं-क्या उसे भी तुम परिग्रही कहोगे ? जिसे किसी प्रकार की मूर्छा । आसक्ति नहीं, वह परिग्रही नहीं है। ठीक वैसे ही जो अनंत तृष्णा से आकुल-व्याकुल है, वह अपरिग्रही नहीं। अतः बुद्धि पर जमी मूर्छा की परतों को उखाडकर 'आपरेशन' करवाकर बुद्धि को मूर्छ-मुक्त करोगे, तभी पूर्णता का पंथ प्रशस्त होगा । तुम्हारा अन्तःकरण पूर्णानन्द से छलक उठेगा ।