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________________ ३७८ ज्ञानसार से विचार न करना, बल्कि सूक्ष्म दृष्टि से चिन्तन करना... ! तभी परिग्रह - अपरिग्रह की व्याख्या साफ-साफ समझ में आएगी । मुनिराज ! ओ निर्मोही... निर्लेप मुनिराज ! परिग्रह को स्पर्श करनेवाली वायु भी तुम्हें छू नहीं सकती... परिग्रह की पर्वतमालाओं का बोझ ढोते श्रीमन्त / धनवान तुम्हारी प्रदक्षिणा कर छूमंतर होने में सदा तत्पर होते हैं... तुम्हारे मन में परिग्रह का आग्रह नहीं, ना ही भौतिक... सांसारिक पदार्थों की रंच मात्र स्पृहा ! तुमने जिस परिग्रह का मन-वचन-काया से त्याग किया है, उसका मूल्यांकन भी तुम्हारे मन पर प्रतिबिंबित नहीं । शरीर को ढँकनेवाले वस्त्र, भिक्षार्थ पात्र और स्वाध्याय हेतु संग्रहित पुस्तकों पर, 'ये मेरे हैं,' ऐसा ममत्व भी नहीं । अन्तरंग दृष्टि से तुम संयम के उपकरणों से भी निर्लेप हो । हाँ, राह भटकते, दीन-हीन बन भीख माँगकर जीवन वसर करते... विविध व्यसनों से घिरे भिखारियों को कभी देखा है ? जिन के पास 'परिग्रह' कहा जाए, ऐसा कुछ भी नहीं होता और यदि है तो भी जीर्ण-शीर्ण गुदडी और दुर्गंधित चोला । हाथ में एक-दो पैसे ! क्या इसे तुम 'परिग्रह' कह सकोगे और उसे परिग्रही ? या फिर अपरिग्रही महात्मा कहोगे या पहुँचे हुए साधु-संत ? नहीं, हर्गिज नहीं । क्यों ? क्योंकि उन्हें तो 'जगदेव परिग्रह' है । उनकी आकांक्षाओं का क्षेत्र होता है, निखिल विश्व । सारी दुनिया ही उनका परिग्रह है । चराचर सृष्टि में विद्यमान समस्त सम्पत्ति के प्रति उनमें गहरा ममत्व भरा पड़ा होता है तुम्हारे पास क्या है और क्या नहीं, उस पर परिग्रह अपरिग्रह का निर्णय न करो। तुम क्या चाहते हो और क्या नहीं - उस पर परिग्रह अपरिग्रह का निर्णय न करो । हाँ, तुम अपनी तपश्चर्या, दान और चारित्र - पालन से क्या चाहते हो ? यदि तुम स्वर्गलोक का इन्द्रासन या फिर मृत्युलोक का चक्रवर्ती पद चाहते हो, देवांगनाओं के साथ आमोद-प्रमोद अथवा मृत्युलोक की वारांगनाओं का स्नेहालिंगन चाहते हो तब तुम अपरिग्रही कैसे ?
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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