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परिग्रह-त्याग
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अपवाद का मार्ग अपनाते हो, उसमें तुम शत-प्रतिशत निर्दोष हो, लेकिन तनिक भी आत्म-प्रवंचना न हो, इस बात की सावधानी बरतना । ऐसा न हो कि एक तरफ शास्त्र अध्ययन करने हेतु वस्त्र-पात्रादि ग्रहण करते हो और दूसरी तरफ वस्त्र-पात्रादि ग्रहण व धारण करने में मूर्छा-आसक्ति गाढ़ बनती जाय । जैसेजैसे ज्ञानोपासना बढ़ती जाए, वैसे-वैसे पर-पदार्थ विषयक ममत्व क्षीण होता जाए. तो समझना चाहिए कि ज्ञानदीपक ने तुम्हारे जीवन-मार्ग को वास्तव में ज्योतिर्मय कर दिया है।
सिर्फ ज्ञानोपासना ! अन्य कोई प्रवृत्ति नहीं ! मन को भटकने के लिये अन्य कोई स्थान नहीं... । बस, एक ज्ञानोपासना में ही तल्लीनता ! फिर भले ही काया पर-पदार्थों को ग्रहण करे और धारण करे । आत्मा पर इसका क्या असर?
मूर्छाछन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रहः ॥२५॥८॥
अर्थ : जिसकी बुद्धि मूर्छा से आच्छादित है, उसके लिये समस्त जगत परिग्रह स्वरुप है, जबकि मूर्छा-विहीन के लिये यह जगत अपरिग्रह स्वरुप है।
विवेचन : परिग्रह अपरिग्रह की न जाने कैसी मार्मिक व्याख्या की है। कितनी स्पष्ट और निश्चित ! घरातल एर ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे हम परिग्रह अथवा अपरिग्रह की संज्ञा दे सकते हैं ? मूर्छा यह परिग्रह और अमूर्छ अपरिग्रह। संयम-साधना में सहायक पदार्थ अपरिग्रह और बाधक पदार्थ परिग्रहा। पर-पदार्थों का त्याग किया । धन-सम्पत्ति, बंगले-मोटर बगैरह को सदा के लिये तज कर संयम-जीवन अंगीकार किया, श्रमण बने । अरे, शरीर पर वस्त्र नहीं
और भोजन के लिये पात्र... और तुमने समझ लिया कि 'मैं अपरिग्रही बन गया।' ठीक है, क्षणार्ध के लिये तुम्हारी बात स्वीकार कर, पूछना चाहता हूँ-"जिन परपदार्थो का तुमने त्याग किया, उनके लिये तुम्हारे हृदय में राग-द्वेष की भावना पैदा होती है या नहीं ? अरे, शरीर तो पर पदार्थ जो ठहरा ! जब वह रोगग्रस्त / बीमार होता है, तब उसके प्रति क्या ममत्व जागृत नहीं होता ? शरीर को तज तो नहीं दिया ? पर-भाव का त्याग तो नहीं किया ? तनिक गंभीरता से सोचो, विचार करो कि वाकई तुम अपरिग्रही बन गये ? भूलकर भी कभी स्थूल दृष्टि