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________________ ३७६ ज्ञानसार शर्ते हैं : - निःस्पृह वृत्ति से ग्रहण करना, - ज्ञान-दीपक को प्रज्वलित रखना । भले ही दिगंबर संप्रदाय की यह मान्यता हो कि, "तुम परिग्रही हो... ज्ञान मात्र की परिगतिवाले श्रमण-समुदाय को वस्त्र धारण नहीं करने चाहिये और ना ही अपने पास पात्र रखने चाहिएँ ।" यह कहते हुए उनका तर्क है कि, "वस्त्रपात्र का ग्रहण-धारण मूर्छा के बिना नहीं हो सकता । मूर्छा परिग्रह है।" सिर्फ उनकी मान्यता के कारण हम परिग्रही नहीं बन जाते, या वे अपरिग्रही नहीं हो जाते । यदि वस्त्र-पात्र के धारण करने मात्र से ही मूर्छा का उद्गम होता हो तो भोजन ग्रहण करने में मूर्छा क्यों नहीं ? क्या भोजन रागद्वेष का निमित्त नहीं ? क्या कमण्डल मोरपंख ग्रहण करने और सतत अपने पास रखने में परिग्रह नहीं ? अरे, शरीर ही एक परिग्रह जो ठहरा... ! दिगम्बर मुनि भोजन करते हैं और कमण्डल तथा मोर-पंख अपने पास रखते हैं... । दांत किटकिटानेवाली सर्दी में घास-फूस की शय्या पर गहरी नींद सोते हैं... ! इसे शरीर पर की मूर्छा नहीं तो और क्या कहेंगे? असंयमी संसारी जीवों को औषधि बताने की क्रिया अपरिग्रहता का लक्षण है ? हे मुनिराज ! यदि तुम शास्त्र-मर्यादा में रहकर चौदह प्रकार के धर्मोपकरण धारण करते हो, उनका नित्य-प्रति उपयोग करते हो, उनसे तुम्हारा ज्ञान-दीप अखंड और स्थिर रहता है, तो निःसन्देह तुम परिग्रही नहीं हो । नग्न रहने से सर्वथा अपरिग्रही नहीं बना जाता अथवा वस्त्र धारण करने से परिग्रही ! राह में भटकते कुत्ते और सूअर नग्न ही होते हैं न ? क्या उन्हें हम अपरिग्रही मुनि की संज्ञा देंगे ? ठीक वैसे ही विजयादशमी के दिन घोडे को सजाया जाता है, सोने और चांदी के कीमती गहने पहनाये जाते हैं, तो क्या उस घोडे को हम परिग्रही कहेंगे? कुत्ता कोई मूर्छारहित नहीं है, ना ही घोडे को अपनी सजावट पर मूर्छा है! . यह लक्ष्य होना चाहिए कि कहीं ज्ञान-दीपक बुझ न जाए । ज्ञान-दीपक को निरन्तर प्रज्वलित-ज्योतिर्मय बनाये रखने के लिये तुम जो शास्त्रीय उत्सर्ग
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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