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परिग्रह-त्याग
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नियंत्रण प्रस्थापित कर, उससे निरपेक्ष बने रहो, तो ही ज्ञानानन्द में गोते लगा सकोगे।
चिन्मात्रदीपको, गच्छेत् निर्वातस्थानसंनिभैः । निष्परिग्रहतास्थैर्य, धर्मोपकरणैरपि ॥२५॥७॥
अर्थ : ज्ञान मात्र का दीपक, पवन रहित स्थान जैसे धर्म के उपकरणों द्वारा भी परिग्रह-परित्याग-स्वरुप स्थिरता धारणा करता है।
विवेचन : दीपक !
दीये में घी भरा हुआ है और कपास की बत्ती है । दीया टिम-टिमाता है, उसकी लौ स्थिर है, हवा का कोई झोंका नहीं और प्रकाश में कोई अस्थिरता नहीं । वह स्थिर है और प्रकाशमान है।
विश्व के तत्त्वचिन्तकों ने, दार्शनिकों ने और महर्षियों ने ज्ञान को दीपक की उपमा दी है । स्थूल जगत में जिस तरह दीप-प्रकाश की आवश्यकता है, ठीक उसी तरह आत्मा के सूक्ष्म जगत में ज्ञान-दीप के प्रकाश की आवश्यकता होती है। लेकिन निंद्रा में जीव ज्ञानप्रकाश पसंद नहीं करता । वैसे ही मोह निद्रा में जीव ज्ञान प्रकाश नहीं चाहता... अज्ञानांधकार में ही मोह रुपी गहरी नींद आती
यहि दीपक स्थिर है, तो प्रकाश फैला सकता है। बशर्ते कि वह घीतेल पूरित होना चाहिये और वायु रहित स्थान पर रखा गया हो । ज्ञानदीपक के लिए भी ये शर्ते अनिवार्य हैं।
ज्ञान-दीपक का घी-तेल है-सुयोग्य भोजन । ज्ञान-दीपक का निरापाद स्थान है-धर्म के उपकरण ।
ज्ञानोपासना निरन्तर चलती रहे और धर्मध्यान तथा धर्म-चिन्तन निराबाध गति से होता रहे, इसके लिये तुम श्वेत और जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण करते रहो, यह परिग्रह नहीं है । सतत स्वाध्याय का मधुर-गुंजन होता रहे, इसके लिये तुम वस्त्र-पात्र ग्रहण करो, यह परिग्रह नहीं है । हाँ, वस्त्र-पात्र ग्रहण करने की अपनी