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ज्ञानसार
रहना है । तुम अपने आपको कदापि अपूर्ण न मानो । ज्ञानी की परिपूर्णता का आभास होते ही पुद्गल से पूर्ण अथवा सुखी बनने की कल्पना / आकांक्षायें माप बनकर उड़ जायेंगी ।
"मुझे तो शरद-ऋतु ही भाती है । ग्रीष्म ऋतु में तो बारह बज जाती है और वर्षा में लगातार बारिश होती है-ऐसे स्थान पर रहना मेरे लिए पूर्णतया असम्भव है।" क्या ऐसा काल-प्रतिबन्ध तुम्हें अहर्निश सताता है ? ऐसे कालसापेक्ष विकल्पों की प्रचण्ड लहरें रह-रहकर गहराती रहती हैं ? तब यह निःसंदिग्ध सत्य है कि तुम "चिन्मय' नहीं बन पाये ! अब भी पुद्गलनियंत्रण के कारावास में तुम बन्द हो ।
तुम्हें भाव-सापेक्षता की पीड़ा तो नहीं सताती न ? "मेरा नित्य प्रति गुणानुवाद हो, लोग सदा मेरी जयजयकार करते रहें, प्रशंसा-गीत की झड़ा लम गई हो और मान-सन्मान के कार्यक्रमो का लम्बा सिल-सिला चलता हो । सुगन्धयुक्त सुरभित वातावरण हो ।" अर्थात् जीवों को अच्छी-बुरी भावनाओं का असर तुम पर पड़ता है और अच्छी-बुरी भावनाओं के अनुसार राग-द्वेष की भी उत्पत्ति होती है । तब भला तुम्हें योगी कौन कहेगा?
कहने का तात्पर्य यही है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से तुम निरपेक्ष बनो । पुद्गलनिरपेक्ष बने बिना भवसागर पार नहीं कर सकोगे; तुम्हारी मानसिक पवित्रता नहीं बनी रहेगी, चित्त की स्वस्थता टिकेगी नहीं और सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्र की आराधना में तल्लीन नहीं रह सकोगे। तुम संसार तजकर साधु बने, मोह छोड़कर मुनि बने और अंगना तजकर अणगार बने । तुमने क्या नहीं किया? कई अपेक्षायें तुमने पहले ही त्याग दी हैं, फिर भी अब तुम्हें मानसिक भूमिका पर बहुत कुछ त्याग करना है । स्थूल त्याग से सूक्ष्म त्याग की ओर गति करना है । तुमने आज तक जो त्याग किया है, उसमें ही संतुष्ट न रहो और ना ही इसे अपनी कल्पना-सृष्टि में कायम रखो । अभी मंजिल बहुत दूर है । अतः पुद्गलनियंत्रण में से तम्हें सर्वथा मुक्त होना है। यह न भूलो कि यह शरीर भी पौद्गलिक है। जहाँ इसके आधिपत्य से भी स्वतंत्र बनना है, तो अन्य पौद्गलिक पदार्थों की बात ही कहाँ है ? जिन पौद्गलिक पदार्थों का साथ अनिवार्य है, उनकी संगति में भी, उसका तुम पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए । पुद्गल पर तुम्हारा