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ज्ञानसार
हो, यह कहाँ तक उचित है ? बजाय इसके तट को तोड दो... । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसरी ! पाप की जलराशि को बह जाने दो... । क्या तुम्हें उस पानी की दुर्गंध नहीं आती ? खैर, आदत जो पड़ गयी है ! लेकिन ऐसे स्थान पर बैठकर साधुता को क्यों लजा रहे हो ? उसकी तनिक शान और आन तो रहने दो । तभी कहता हूँ भाई, उठाओ कुदाल और फावड़ा । देर न करो, तुरन्त परिग्रह के तट को तोड़ दो। - जब तट टूट जाएगा, पाप का जल बहते देर नहीं लगेगी और तब निर्मल
आत्म-सरोवर के किनारे खड़े कोई नई अभिनव अनुभूति का अनुभव करोगे । तुम्हें महसूस होगा कि अब तक परिग्रह में संयम का अमृत सुक गया था और अन्तःकरण की केसर-सुरभित महाव्रतों की वाटिका को किसी ने विरान बना दिया था । दृष्टि पर अन्धकार की परत किसी ने जमा दी थी। साधना-आराधना का सुहावना उद्यान उजड़ गया था और प्रांगण में कंटीली झाड़ियाँ ही पनप आयी थीं। परिग्रह के पापवश सर्वविरति-जीवन तहस-नहस हो गया था और सर्वविरति के वेश में तुम्हें आसक्ति ने अजीब उलझन में डाल दिया था ।
परिग्रह के पाप से ही तो साधु महाव्रतों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित होता है। परिग्रह का ममत्व ही उसे क्रोधादि कषाय और रस-ऋद्धि-शाता गारव का सेवन करने हेतु धक्का मारता है । जहाँ परिग्रह का परित्याग किया नहीं कि क्रोधादि कषाय उपशान्त होते विलम्ब नहीं लगता । गारव के प्रति घृणाभाव पैदा होगा... । महाव्रतों के पालन में अडिगता और स्थिरता आएगी।
जबकि तुम धन-सम्पत्ति और परिवार का त्याग कर श्रमण बने हो तो अब साधु-जीवन में पैदा किए हुए परिग्रह का परित्याग करने में हिचकिचाहट क्यों ? अगाध जल-राशि तैर कर, किनारे लगते समय भला, डूबने की तैयारी क्यों कर रहे हो ? इसीलिए तो बार-बार आग्रह कर रहा हूँ कि परिग्रह के तट को तोड दो । पाप-जल बह जाएगा और तुम निर्मल, निर्मम बन जाओगे ।
त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मूर्छा मुक्तस्य योगिनः । चिन्मात्रप्रतिबद्धस्य, का पुद्गल-नियंत्रणा ? ॥२५॥६॥