________________
परिग्रह-त्याग
३७१ को तोड़ दो । सरोवर खाली होते विलम्ब नहीं लगेगा । यह भी कोई बात हुई कि तट तोडना नहीं और सरोवर खाली हो जाए ? तब तो असम्भव है ।
तुम्हारी मनीषा आत्म-सरोवर को पाप-जल से खाली करने की है न? तब परिग्रह के तट को तोड दो... और तोड़ना ही पडेगा । इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है । मानता हूँ कि उक्त तट को बाँधने में / तैयार करने में तुमने दिन-रात पसीना बहाया है, कठोर परिश्रम किया है । संयम और स्वाध्याय को ताक पर रखकर तुमने अपना सर्वस्व दाव पर लगा दिया है। मुनि-धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन कर तट को सुशोभित... सुन्दर किया है। लेकिन मेरी मानो और तट को तोड दो । इसके बिना आत्म-सरोवर में रहा पाप-पानी बाहर नहीं
जाएगा।
यह भी भली भाँति जानता हूँ परिग्रह के तट पर बैठ कर तुम्हें नारी कथा, भोजन कथा, देश कथा और राजकथा वतियाने में अपूर्व आनन्द मिलता है। भोलेभाले अज्ञानी जीवों से मान-सम्मान स्वीकार करने में लीन हो, परिग्रह के तट पर प्रायः तुम्हारा दरबार लगता है और खुशामदखोर तथा चापलुसों के बीच बैठे तुम अपने आपको महान समझते हो । लेकिन याद रखना, तट पर से फिसल गये तो फिर अगाध पाप-पंक में समाधि लेनी होगी... और ऐसे समय उपस्थित खुशामदखोरों में से एक भी तुम्हें बचाने के लिये पाप-पंक से भरे सरोवर में छलांग नहीं लगाएगा।
परिग्रह के तट पर धूनी रमाकर बैठे तुम वहाँ के शाश्वत् नियमों को जानते हो ? तट पर बैठा यदि तट तोडने का कार्य न करें, तो उसका अगाध पापपंक में डूबना निश्चित है... । भले ही फिर तुम त्यागीवेश में हो, तुम्हारा उपदेश वैराग्य-प्रेरक हो, तुम्हारी क्रियायें जिनमार्ग की हों, लाखों भक्त तुम्हारी जयजयकार करते हों, तुम आँखे मुँद, पद्मासन लगाये ध्यानस्थ हो अथवा घोर तपश्चर्या करते हो । ये सारी क्रिया-प्रक्रियायें किसी काम की नहीं, जब तक तुम परिग्रह के तट पर बैठे हुए हो । क्योंकि अन्त में तो तुम्हें तट पर से लुढक कर अगाध पाप-जलराशि में डूबकर मरना ही है।
परिग्रह के तट पर धूनी रमाकर तुम विश्व को अपरिग्रह का उपदेश देते