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________________ ३७० ज्ञानसार है। वाकइ मैंने कितनी बडी मूर्खता करती और गुरुदेव के प्रति अपने मन में अशुभ चिन्तन किया ।" उसके मन-मंच पर भगवान के समक्ष प्रायश्चित करने का विचार उभर आया । वह एक कदम आगे बढ़ी और फिर ठिठक गयी... । “प्रायश्चित करने के लिये मुझे अपना मानसिक पाप प्रभु के समक्ष निवेदन करना होगा... । समवसरण में अपस्थस्थित श्रोतावृंद मेरे बारे में क्या सोचेंगे...? भगवान स्वयं क्या अनुभव करेंगे ? 'साध्वी लक्ष्मणा और ऐसे गंदे विचार ?' इसके बजाय तो मैं स्वयं अपने हाथों प्रायश्चित कर लूँगी ।" अवसर पाकर भगवान से पूछ लूँगी : "प्रभु कोई ऐसे गंदे विचार करे, तो उसका प्रायश्चित क्या है ?" दूसरे अन्तरंग परिग्रह ने उसके मन को मथ लिया । चित्त चंचल हो उठा । माया भी अन्तरंग परिग्रह ही है। हालाँकि उसने अपना पाप स्वमुख से प्रकट नहीं किया, लेकिन आज सहस्त्रावधि वर्षों के पश्चात् भी हम उसे जान पाये हैं। भला कैसे? यह सही है कि निर्ग्रन्थ भगवान से कोई बात छिपी नहीं रह सकती । आर्या लक्ष्मणा आज भी जन्म-मरण के चक्र में फँसी चक्कर काट रही है। यह सब अन्तरंग परिग्रह की लीला है । बाह्य परिग्रह का त्याग करते हुए यदि आभ्यन्तर परिग्रह की एकाध गाँठ भी रह जाए, तो संसार-परिभ्रमण के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा नहीं है । उपाध्यायजी महाराज ने फरमाया है कि, "यदि तुम्हारा मन अन्तरंग परिग्रह से आकुल-व्याकुल है, तो बाह्य मुनिवेश व्यर्थ है, वह कोई कीमत नहीं रखता । ऐसा कहकर वे मुनिवेश का त्याग करने को नहीं कहते, परन्तु अन्तरंग परिग्रह के परित्याग की भव्य प्रेरणा देते हैं। त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः । पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥२५॥५॥ अर्थ : परिग्रह का त्याग करते ही साधु के सारे पाप क्षय हो जाते हैं। जिस तरह पाल टूटते ही तालाब का सारा पानी बह जाता है। विवेचन : पानी से भरे सरोवर को खाली कर देना है ? उसके किनारे
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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