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परिग्रह-त्याग
३६९ हो जाओ। जिस परिग्रह को तुमने तज दिया है, दुबारा उसका स्मरण न करो। त्याग किये गये परिग्रह से बढ़कर परिग्रह की प्राप्ति के लिये तत्पर न बनो । तभी मन प्रसन्न और पवित्र रहेगा। जब तक अन्तरंग राग-द्वेष एवं मोह की ग्रन्थि का नाश न होगा, भौतिक पदार्थों का आन्तरिक आकर्षण खत्म नहीं होगा, तब तक मानसिक स्वस्थता असम्भव है । अतस्थ मलीन भावों का संग्रह, परिग्रह मन को सदैव रोगी ही रखता है।
"लेकिन अन्तरंग-परिग्रह का त्याग सर्वथा दुष्कर जो है ?" मानते हैं। लेकिन उसके बिना बाह्य निग्रंथवेश वृथा है । साँप भले ही केंचुली उतार दे । लेकिन जब तक वह विष बाहर नहीं उगलेगा, तब तक वह निविष नहीं बन सकता । तुमने सिर्फ बाह्य-वेश का परिवर्तन कर दिया और बाह्याचार का परिवर्तन कर दिया । उससे भला क्या होगा? क्या तुम उस लक्ष्मणा साध्वी के नाम से अपरिचित, अनभिज्ञ हो ? ..
प्राचीन समय की बात है। राजकुमारी लक्ष्मणा ने समग्र संसार के परिग्रह को त्याग दिया । वह संयममार्ग की पथिक बन गयी । भगवान के आर्यासंघ में सम्मिलित हो, घोर तपश्चर्या आरम्भ की। कैसी अदभूत तपश्चर्या ! ज्ञान और ध्यान का उसने अपूर्व संयोग साध लिया । विनय और वैयावृत्य की संवादिता साध ली । लेकिन एक दिन की बात है । अचानक उसकी दृष्टि एक चिडाचिडिया के जोड़े पर पडी। दोनों मैथुन-क्रिया का आनन्द लूट रहे थे । लक्ष्मणा के मनःचक्षू पर यह दृश्य अंकित हो गया। वह दिग्मूढ हो सोचने लगी : "भगवान ने मैथुन का सर्वथा निषेध किया है। वे स्वयं निर्वेदी हैं । तब उन्हें भला वेदोदयवाले जीवों के सम्भोग-सुख का अनुभव कहाँ से होगा ?"
जातीय संभोगसुख के अन्तरंग परिग्रह ने लक्ष्मणा साध्वी का गला घोंट दिया। मैथुन क्रिया के दर्शन मात्र से संभोग सुख के परिग्रह की वासना जग पडी । परिग्रह-परित्याग के उद्घोषक साक्षात् तीर्थंकर उसे अज्ञानी लगे।
पल दो पल के पश्चात् साध्वी लक्ष्मणा सहज और स्वस्थ हो गइ । वह मन ही मन सोचने लगी : 'अरे रे, मैंने यह क्या सोचा और समझा ? भगवन्त तो सर्वज्ञ है। उनसे कोई बात छिपी हुई नहीं है। वे सब जानते है और समझते