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ज्ञानसार
बत्तीस कोटि सुवर्ण मुद्रायें और बत्तीस पत्नियों का तृणवत् परित्याग कर, आभ्यन्तर राग-द्वेष का त्याग कर, वैभारगिरि पर ध्यानस्थ रहे महामुनि धन्ना अणगार की जब भगवान महावीर ने देशना देते हुए भूरि-भूरि प्रशंसा की, तब समवसरण में उपस्थित देव-देवी, मनुष्य-तिर्यंच, पशु-पक्षी, कौन उन भाग्यशाली धन्ना अणगार को नत मस्तक नहीं हुआ था ? अरे, मगधाधिपति श्रेणिक तो वैभारगिरि की पथरीली, वीरान और भयंकर पगडंडी को रौंदते हुए धन्ना अणगार के दर्शनार्थ दौड़ पड़े थे और महामुनि के दर्शन कर श्रद्धासिक्त भाव से उनके चरणों में झुक पड़े थे । आज भी इस ऐतिहासिक घटना की साक्षी स्वरुप 'अनुत्तरोपपातिक सूत्र' विद्यमान है। बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह के महात्यागी धन्ना अणगार के चरणों में तीन लोक श्रद्धाभाव से नतमस्तक हुए थे और आज भी उनका स्मरण कर हम नतमस्तक हो जाते हैं।
चित्त की परम शान्ति, आत्मा की पवित्रता और मोक्ष-मार्ग की आराधना का सारा दार-मदार परिग्रह-त्याग की वृत्ति पर अवलंबित है । क्योंकि परिग्रह में निरन्तर व्याकुलता है, वेदना है और पाप-प्रचुरता है ।
चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने, बहिर्निग्रन्थता वृथा । त्यागात् कञ्चकमात्रस्य, भुजगो न हि निर्विषः ॥२५॥४॥
अर्थ : जब तक मन आभ्यन्तर परिग्रह से आकुल-व्याकुल है तब तक बाह्य निर्ग्रन्थवृत्ति व्यर्थ है । क्योंकि कंचुकी छोड़ देने से विषधर विषरहित नहीं बन जाता।
विवेचन : भले ही तुमने वस्त्र-परिवर्तन कर दिया, निवास-स्थान को तजकर उपाश्रय अथवा धर्मशाला में बेठ गये, केशमुंडन कराने के बजाय केशलोच कराने लगे, धोती अथवा पेंट के बदले 'चोल पट्टक' धारण करना शुरु कर दिया और जूते पहनने के बजाय नंगे पाँव रहने लगे, लेकिन इससे तुम्हारे मन की व्याकुलता, विवशता और अस्थिरता कभी दूर नहीं होगी।
तब क्या करना चाहिये ? एक काम करो । आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने के लिए कटिबद्ध