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________________ ३६७ परिग्रह-त्याग पर उसका आकर्षण सदा बना रहता है । "मैंने लाखों-करोडों का वैभव क्षणमात्र में त्याग दिया... मैंने विशाल परिवार का सुख सदा के लिये छोड़ दिया, मैंने महान् त्याग किया है।" बारबार ऐसे विचार मन में उठते रहें, तो समझ लो कि त्याग तृणवत् नहीं किया है। इस तरह त्याग करने से उसके प्रति उदासनीता पैदा नहीं होती । त्यागी भूलकर भी अपने त्याग की गाथा न गाये । अरे, अपने मन में भी त्याग का मूल्यांकन न करें। शालिभद्र ने ३२ पत्नियों के साथ-साथ नित्य प्राप्त दैवी ९९ पेटियों का त्याग किया... ममतामयी माता का त्याग किया... वह त्याग निःसन्देह तृणवत् त्याग था । वैभारगिरि पर उनके दर्शनार्थ आयी वात्सल्यमयी माता और प्रेमातुर पत्नियों की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं । उदासीनता और मोहत्याग की प्रतिमूर्ति सनत्कुमार ने चक्रवर्तीत्व का त्याग किया... सर्वोच्च पद का त्याग ! लगातार ६ माह तक साथ चलनेवाले माता-पिता और पत्नी-परिवार की ओर देखा तक नहीं, अपितु विरक्त भाव और उदासीनता धारण कर निरन्तर आगे बढ़ते रहे। सच तो यह है कि बाह्य परिग्रह के साथ-साथ आभ्यन्तर परिग्रह का भी त्याग होना चाहिये । तभी विरक्ति और उदासीनता का आविर्भाव सम्भव है। यदि आभ्यन्तर परिग्रह रुप मिथ्यात्व और कषायों का त्याग नहीं किया, तो पुनः बाह्य परिग्रह की लालसा जागते विलम्ब नहीं लगेगा। सम्भव है कि जीव मानव-जीवन के सुखों का परित्याग कर स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति हेतु संयम भी ग्रहण कर ले, फिर भी वह अपरिग्रही नहीं बनता। क्योंकि आभ्यन्तर परिग्रह की उसकी भावना पूर्ववत् बनी रहती है । जबकि बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी पुरुष, निर्मम-निरहंकारी बन, आत्मानन्द की पूर्णता में स्वयं को पूर्ण समझता है । वह भूलकर भी कभी बाह्य पदार्थों के माध्यम से अपने को पूर्ण नहीं समझता, ना ही पूर्ण होने का प्रयत्न करता है। अपितु बाह्य पदार्थों के संयोग में अपनेआप को सदैव अपूर्ण ही समझता है। अत: वह बाह्य पदार्थों का त्याग कर उनके प्रति मन में रहे अनुराग को सदा के लिये मिटा देता है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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