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________________ ३६६ ज्ञानसार परिग्रह का पाप-ग्रह जब योगी पुरुषों को ग्रसित करता है, तब वे त्याग, तप, ध्यान, ज्ञान, क्षमा, नम्रतादि आभ्यन्तर लक्ष्मी का सदा के लिये त्याग कर देते हैं । इतना ही नहीं, बल्कि जिनमत के अपरिग्रहवाद का विकृत ढंग से प्रतिपादन करते हैं । क्या तुमने कभी वेषधारियों को अपने परिग्रह का बचाव करते देखा नहीं है ? "उपमिति" ग्रन्थ में कहा गया है कि, 'ऐसे जीव अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।' यस्त्यक्त्वा तृणवद् बाह्यमान्तरं च परिग्रहम् ।। उदास्ते तत्पदांभोजं पर्युपास्ते जगत्त्रयी ॥२५॥३॥ · अर्थ : जो तृण के समान बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग कर, सदा उदासीन रहते हैं, उनके चरणकमलों की तीन लोक सेवा करते हैं। विवेचन : वे महापुरुष सदा वन्दनीय और पूजनीय हैं जो धन-संपदा पुत्र-परिवार, सोना-चाँदी, हीरे-मोती आदि का स्वेच्छा से त्याग करते हैं । वे महात्मा सदैव पूजन-अर्चन योग्य हैं, जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय गारव और प्रमादादि का सर्वथा त्याग करते हैं और निर्मम, निरहंकार बनकर संसार में विचरण करते हैं । ऐसे परम त्यागी योगी ही अहर्निश वन्दनीय हैं, जिनके वन्दन-स्तवन से अनन्त कर्मो का क्षय होता है, असंख्य दोष नष्ट हो जाते हैं और गौरवमय गुणों का निरंतर प्रादुर्भाव होता है। ___ - धन-संपदा आदि बाह्य परिग्रह हैं । - मिथ्यात्व-अविरति आदि आभ्यन्तर परिग्रह हैं । इन दोनों परिग्रहों का मुनि तृणवत् त्याग करें, मलबे की तरह उठाकर बाहर फेंक दें। खयाल रहे, घर में रहे कूड़े को बाहर फेंकनेवाले को कभी उसका (कचरे का) अभिमान नहीं होता । अरे भाई, फेंकने लायक वस्तु फेंक दी, उसमें अभिमान कैसा ? जिस तरह कूडा और मलवा संग्रह करने की वस्तु नहीं है, वैसे ही परिग्रह भी संग्रह करने योग्य नहीं, अपितु त्याग करने जैसी वस्तु है । किसी जीच को कूड़ा समझकर फेंक देने के बाद उसके प्रति तिलमात्र भी आकर्षण नहीं होता, जबकि वस्तु को मूल्यवान समझ कर उसका त्याग करने
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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