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परिग्रह-त्याग
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प्रस्थापित कर उक्त रकम किसी भक्त की तिजोरी में बन्द रखना, क्या परिग्रह नहीं है ? उपाश्रय, ज्ञानमन्दिर, पौषधशाला और धर्मशाला निर्माण हेतु उपदेश के माध्यम से करोड़ों रूपये खर्च करवाकर उनकी व्यवस्था / प्रबन्ध के सारे सूत्र अपने हाथ में रखना, क्या परिग्रह नहीं है ? सहस्त्रावधि पुस्तकों की खरीदी करवाकर उस पर अपने नाम का ठप्पा मारकर उसका मालिक बनना, क्या परिग्रह नहीं है ? इतना ही नहीं, बल्कि इससे एक कदम आगे, इन कार्यों के प्रति अभिमान धारण कर उससे अपने बड़प्पन का डंका पिटवाना, क्या साधुता का लक्षण है ? ऐसे परिग्रही लोगों को पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'वेषधारी' की संज्ञा प्रदान की है। सिर्फ वेश मुनि का, लेकिन आचरण गृहस्थ का । अपरिग्रह का जयघोष करनेवाले जब परिग्रह के शिखर पर आरोहण हेतु प्रतिस्पर्धा करने लग जाएँ, तब ऐसा कौन-सा ज्ञानी पुरुष है, जिसका हृदय आर्त नाद से चीख न पडेगा?
एक समय की बात है। किसी त्यागी पुरुष के पास एक धनिक गया। वन्दन-स्तवन कर उसने विनीत भाव से पूछा "गुरूवर, मुझे हज़ार रुपये गरीब, दीन-दरिद्र और मोहताज लोगों में बाँटने हैं... आपको ठीक लगे-वैसे बांटवा दें तो बड़ी कृपा होगी।"
और भक्त ने सौ-सौ की दस नोट उनके सामने रख दी । त्यागी पुरुष पल-दो पल के लिए मौन रहे । उन्होंने तीक्ष्ण नजर से एक बार उसकी ओर देखा और तब बोले : "भाग्यशाली, यह काम तुम अपने मुनीम को सौंप दो । मैं तुम्हारा मुनीम नहीं हूँ।" धनिक क्षणार्ध के लिये स्तब्ध रह गया। उसने चुपचाप नोट उठा लिये और क्षमायाचना कर नतमस्तक हो, चला गया । वह मन ही मन त्यागी पुरुष की महानता और विराट व्यक्तित्व से गद् गद् हो उठा।
परिग्रह इसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता मुनि जीवन में प्रवेश करता है। यदि ऐसे समय जरा भी सावधानी न बरती गयी तो समझ लो कि परिग्रह की दुष्ट चाल में फँस गये । श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी ने ठीक ही कहा है :
तपःश्रुतपरिवारां शमसाम्राज्यसंपदम् । .. परिग्रहग्रस्तास्त्यजेयुर्योगिनोऽपि हि ॥ - योगशास्त्र