________________
३६४
ज्ञानसार
• तक डूबे और परिग्रह के रंग में रंगे हुए सामान्य गृहस्थों की बात तो छोड़ दीजिए,
लेकिन जिन्होंने सर्वदृष्टि से बाह्य परिग्रह का परित्याग कर दिया है, जो त्यागी, तपस्वी, मुनिवेशधारी हैं और आत्मानन्द की पूर्णता के राजमार्ग का अवलम्बन लिया है ऐसे महापुरुष परिग्रह के रंग में रंगे दृष्टिगोचर हों, तब भला ज्ञानी पुरुषों को खेद नहीं होगा तो क्या होगा?
मुनि और परिग्रह ? परिग्रह के बोझ को आनन्द से ढोता मुनि, मुनिजीवन के कर्तव्यों से भ्रष्ट होता है। महाव्रतादि के पुनीत पालन में शिथिल बनता है और जिनमार्ग की आराधना के आदर्श को कलंकित करता है । ज्ञान और चारित्र के विपुल साधनों का संग्रह करने के उपरान्त भी जिस मुनि को यह मान्यता है कि 'मैं जो भी कर रहा हूँ, सर्वथा अयोग्य है और मैं परिग्रह के पापमय बहाव में बहा जा रहा हूँ।' ऐसा मुनि भूलकर भी कभी दूसरों को परिग्रह के मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन नहीं देगा । ठीक वैसे ही 'परिग्रह के माध्यम से अपना गौरव नहीं बढेगा।' ऐसा माननेवाला मुनि, उसका अनुकरण एवं अनुसरण करनेवाले अन्य मुनियों के कान में धीरे से कहेगा : "मुनिजन, ओप इस झंझट में कभी न फँसना । मार्ग-भ्रष्ट न होना । मैं तो इसके कीचड में सर से पाँव तक सन गया हूँ, लेकिन तुम हर्गिज न सनना, बल्कि सदा-सर्वदा निर्लेप रह आराधना के मार्ग पर गतिशील रहो ।"
लेकिन जो साधु अपना आत्मनिरीक्षण नहीं करता है, ना ही अपनी त्रुटियों को समझता है... वह निःसन्देह खुद तो परिग्रह का बोझ ढोनेवाला कुली बनेगा ही, साथ में अन्य मुनियों को भी परिग्रही बनने के लिए उकसायेगा । उसका उपदेश मार्गानुसारी नहीं, अपितु उन्मार्ग पोषक होगा। वह कहेगा : "हम तो सदा अपने पास सम्यग्ज्ञान के साधन रखते हैं... सम्यक्चारित्र के उपकरणों से युक्त हैं । हम भला कहाँ कंचन-कामिनी का संग करते हैं ? फिर पाप कैसा ? साथ ही, जो हमारे पास है, उसके प्रति हम में ममत्व की भावना कहाँ है ? ममत्व होगा, तभी परिग्रह !" इस तरह अपना बचाव करते हुए, 'ऐसा परिग्रह तो रखना चाहिए,' का नि:शंक उपदेश देगा ।
उपदेश द्वारा लाखों की सम्पत्ति इकट्ठी कर और उस पर अपना अधिकार