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________________ परिग्रह-त्याग ३६३ परिग्रह का नियंत्रण करना आवश्यक है। त्रिभुवन को अपनी अंगुलियों के इशारे पर नचानेवाले इस दुष्ट ग्रह को उपशान्त किए बिना जीव के लिए सुख-शान्ति असम्भव है । सगर चक्रवर्ती के कितने पुत्र थे ? कुचिकर्ण के यहाँ कितनी गायें थी ? तिलक श्रेष्ठि के भण्डार में कितना अनाज था ? मगध सम्राट नन्दराजा के पास कितना सोना था ? फिर भी उन्हें तृप्ति कहाँ थी ? मानसिक शान्ति कहाँ थी? वैसे परिग्रह की वृत्ति द्रव्योपार्जन, उसका यथोचित संरक्षण और संवर्धन कराने की प्रवृत्तियाँ कराती हैं । इससे परपदार्थों के प्रति ममत्व दृढ़ होता जाता है। परिणाम स्वरूप एक ओर धार्मिक क्रियायें सम्पन्न करने के बावजूद भी आत्मभाव निर्मल... पवित्र नहीं हो पाता । तामसभाव और राजसभाव में प्रायः बाढ आती ही रहती है । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने बताया है कि 'दोषास्तु पर्वतस्थूलाः प्रादुष्यन्ति परिग्रहे ।' परिग्रह के कारण पहाड़ जैसे बड़े और गंभीर दोष पैदा होते हैं । उससे आवर्जित मानव पिता की भी हत्या करते नहीं हिचकिचाता, सद्गुरु और परमात्मा की अवहेलना करते पीछे नहीं हटता, मुनि-हत्या करते नहीं घबराता । ठीक वैसे ही असत्य बोलते, चोरी करते नहीं रुकता । धन-धान्य, सम्पत्ति-वैभव, परिवार, भवन और वाहन आदि सब परिग्रह है। आत्मा से भिन्न पदार्थों के लिए मूर्छा-ममत्व परिग्रह कहलाता है। अतः परिग्रहपरित्याग किए बिना आत्मा प्रशान्त नहीं बनती । परिग्रहग्रहावेशाद्, दुर्भाषितरजः किराम् । श्रुयन्ते विकृताः किं न प्रलापा लिङ्गिनामपि ॥२५॥२॥ अर्थ : परिग्रह रुपी ग्रह के प्रवेश के कारण उत्सूत्रभाषण रुपी धूल सरेआम उडानेवाले वेशधारी लोगों की विकारयुक्त बकवास क्या तुम्हें सुनायी नहीं दे रही हैं ? विवेचन : धन-सम्पत्ति और बंगला-मोटर आदि अतुल वैभव में गले
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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