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________________ शास्त्र . ३५९ रमणीयता भी तुम्हें प्रसन्न नहीं करेगी, सुगंधित पुष्प तुम्हें सुवासित नहीं कर सकेंगे, ना ही उद्यान तुम्हें आह्लादित कर सकेगा। इसीलिए 'शास्त्र' कि जिसका अर्थ स्वयं तीर्थंकर भगवन्तों ने बताया है, जिसे श्री गणधर भगवन्तों ने लिपिबद्ध किया है और पूर्वाचार्यों ने जिसके अर्थ को लोकभोग्य बनाया है, का निरंतरनियमित रुप से चिंतन-मनन करना चाहिए । शास्त्र-स्वाध्याय अपने आप में व्यसन रूप बन जाना चाहिए । उसके बिना साँस लेना मुश्किल हो जाए । सब कुछ मिल जाए, लेकिन जब तक शास्त्रस्वाध्याय नहीं होगा तब तक कुछ नहीं । ठीक उसी तरह जैसे-जैसे शास्त्रस्वाध्याय बढ़ता जाय वैसे-वैसे अज्ञान, स्वच्छन्दता और धर्महीनता की वृत्ति नष्ट होती जायेगी। अतः तुम्हें सदा खयाल रहे कि इसी हेतुवश शास्त्र-स्वाध्याय करना परमावश्यक है। शास्त्रोक्ताचारकर्ता च शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः ! शास्त्रैकदृग् महायोगी प्राप्नोति परमं पदम् ॥२४॥८॥ अर्थ : शास्त्रप्रणीत आचार का पालनकर्ता, शास्त्रों का ज्ञाता, शास्त्रों का उपदेशक और शास्त्रों में एकनिष्ठ महायोगी परमपद पाते हैं । विवेचन : महायोगी ! शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं, उसका उपदेश देनेवाले होते हैं और उसमें प्रतिपादित आचारों को स्व-जीवन में कार्यान्वित करनेवाले होते हैं। जिसके जीवन में इस प्रकार की त्रिवेणी का संगम है, वह महायोगी कहलाता है और इन तीन बातों की एकमेव कुंजी है शास्त्रदृष्टि । बिना इसके, शास्त्रों को समझना और जानना असम्भव है ! फलतः उपदेश देना और शास्त्रीय जीवन जीने का पुरुषार्थ कदापि नहीं होगा । ___महायोगी बनने की पहली शर्त है शास्त्रदृष्टि । नजर शास्त्रों की ओर ही लगी रहनी चाहिए । स्वयं आचार-विचार वृत्ति और व्यवहार का विलीनीकरण शास्त्रों में ही कर देना चाहिए । शास्त्र से भिन्न उनकी वाणी नहीं और विचार नहीं । शास्त्रीय बातों से अपनी वृत्ति और प्रवृत्तियों को भावित कर दी हो, विचार
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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