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________________ शास्त्र ३५७ करना परमावश्यक है । ईन पूर्वाचार्यों ने जिनाज्ञा को अपनी अनूठी शैली और तार्किक वाणी के माध्यम से उसमें रहे रहस्यों को अधिकाधिक मात्रा में उजागर करने का प्रयत्न किया है । जिनाज्ञा की ज्ञान प्राप्ति कर किया हुआ आचारपालन सदा-सर्वदा आत्महितकारी है। जिनाज्ञा-सापेक्षता सदैव कर्म-बन्धनों का नाश करती है । 'मैं अपनी हर प्रवृत्ति जिनाज्ञानुसार करूँगा।' यह भाव प्रत्येक मुनि । श्रमण के मन में दृढ होना जरुरी है। अज्ञानाऽहिमहामंत्रं स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्गनम् ! धर्मारामसुधाकुल्यां शास्त्रमाहुर्महर्षय : ॥२४॥७॥ अर्थ : ऋषिश्रेष्ठों ने, शास्त्र को अज्ञान रुपी सर्प का विष उतारने में महामन्त्र समान, स्वच्छन्दता रुपी ज्वर को उतारने में उपवास समान और धर्म रुपी उद्यान में अमृत की नींक समान कहै है। विवेचन : कहा गया है कि - - सर्प का विष महामन्त्र उतार देता है। - उपवास करने से ज्वर / बुखार उतर जाता है। - पानी के सतत छिडकाव से उद्यान हराभरा रहता है । किसी साँप का जहर तुम्हारे अंग-अंग में फैल गया है, यह तुम जानते हो ? तुम विषम ज्वर से पीडित हो, इसका तुम्हें पता है ? तुम्हारा उद्यान जल बिना उजड गया है, इसका तुम्हें तनिक भी खयाल है ? ___ और इसके लिए तुम किसी महामन्त्र की खोज में हो ? किसी औषधि की तलाश में हो ? कोई पानी की नींक अपने उद्यान में प्रवाहित करना चाहते "हो ? तब तुम्हें नाहक हाथ-पाँव मारने की जरूरत नहीं । इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं,... चिंता और शोक से भयाकुल होने का कोई कारण नहीं ! तो क्या तुम निदान कराना चाहते हो? कोई बात नहीं ? आओ इधर बैठो और शान्त चित्त से सुनो : ....
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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