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ज्ञानसार
करो, अथवा किसी निर्दोष वस्ती में वास करो । पाँच महाव्रतों का कठोरतापूर्वक पालन करो, लेकिन जिनाज्ञा का उल्लंघन किया, यानी आत्मा की ही हत्या कर दी । आत्मा का ही हनन कर देने पर बाह्याचारों का पालन करने का क्या अर्थ ? जिनाज्ञा-निरपेक्ष रह, पालन किये गये बाह्याचार आत्मा का हित साधने के बजाय अहित ही करते हैं । अतः जिनाज्ञा का परिज्ञान होना जरूरी है।
इसका अर्थ यदि कोइ मुनि यूँ ले लें कि, "हमें शास्त्र-स्वाध्याय करने की क्या आवश्यकता है ? हम तो बयालीस' दोषरहित भिक्षा ग्रहण करेंगे ! महाव्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करेंगे। प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ नियमित रूप से करते रहेंगे । आयंबिल, उपवासादि तपस्या करेंगे ।" तो वह सरासर गलत और सर्वथा अनुचित है। ऐसी मान्यता रखनेवाले और तदनुसार आचरण करनेवाले मुनियों को सम्बोधित कर यहाँ कहा गया है : 'हे मुनिराज ! बाह्य-आचार कभी आत्महित नहीं करेंगे । जिनाज्ञानुसार तुम्हारा व्यवहार नहीं है, आचरण नहीं है, यह सबसे बड़ा दोष है, अपराध है।"
वर्तमानकाल में जिनाज्ञा कुल ४५ आगमों में संकलित और संग्रहित है।' वह इस तरह: ११ अंग + १२ उपांग + ६ छेद + ४ मूल + १० पयन्ना + २ नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार = कुल ४५ मूल सूत्र हैं। उन पर लिखी गयीं चूर्णियां, भाष्य, नियुक्तियाँ और टीकाएँ ! इस तरह पंचांगी आगमों का अध्ययन-मनन और चिंतन करने से जिनाज्ञा का बोध हो सकता है। मात्र मूल सूत्रों को केन्द्र-बिन्दु बनाकर स्व-मतानुसार उसका अर्थ निकालनेवाला जिनाज्ञा को हर्गिज समझ नहीं सकता ! ठीक वैसे ही, ४५ आगमों में कुछ आगम मानें और कुछ नहीं माने, उससे भी जिनाज्ञा का परिज्ञान नहीं हो सकता ।
___पंचांगी आगम के अलावा श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि, श्री उमास्वाति वाचक, श्री हरिभद्रसूरिह्यजी, श्री हेमचन्द्रसूरिजी, श्री वादिदेव सूरिजी, श्री शान्तिसूरिजी, श्री विमलाचार्य, श्री यशोदेवसूरिजी, उपाध्याय श्री यशोविजयजी आदि महर्षियों के मौलिक शास्त्र-ग्रन्थों का अध्ययन पठन और चिंतन-मनन
१. बयालीश दोष परिशिष्ट में देखिए ! २. ४५ आगम परिशिष्ट में देखिए !