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________________ शास्त्र पत्नी - प्रेम में रंगा भील्लराज, बावाजी के पास गया । ३५५ "गुरुदेव ! आपका यह छत्र भील्ल - रानी के मन भा गया है ! अतः आप मुझे दीजिए !” उसने विनीत भाव से कहा ! " अरे पगले, यह कैसे सम्भव है ?" "क्यों नहीं गुरूदेव ?" "यह छत्र साधु-संतो के काम का है ! तुम्हारे कोई काम का नहीं ! फिर देकर क्या लाभ ?" "नहीं गुरुदेव, आपको देना तो पड़ेगा ही ! भील्ल-रानी के मन भा जो गया है ।" बाबाजी ने साफ मना कर दिया ! भील्लराज नाराज हो उठा । वह पाँव पटकता बस्ती में गया और अपने अन्य भील साथियों को इकठ्ठा कर बोला : “जाओ भौतमति बाबा का वध कर छत्र छीन लो !" साथी बाबाजी के मन्दिर की दिशा में वेग से निकल पड़े। वे अभी थोड़े दूर गये होंगे कि भील्लराज ने उन्हें आवाज देकर वापिस बुलाया और कहा : "ध्यान रहे, बाबाजी के पाँव चरण पूज्य हैं, अतः उन पर वार न करना ।" साथी, भील्लराज की आज्ञा शिरोधार्य कर निकले पडे ! बाबाजी विश्राम कर रहे थे । उन्होंने दूर से ही उन्हें लक्ष्य बनाकर तीरों की बौछार कर दी । गुरुदेव को छलनी - छलनी कर दिया और छत्र लेकर भील्लराज के पास लौट आये ! I "गुरुदेव का चरणस्पर्श नहीं किया न ?" "नहीं, हमने उन्हें दूर से ही तीरों की बौछार कर बींध दिया । चरणों पर वार करने का प्रसंग ही न आया ।" जरा सोचो तो, भील्लराज की यह कैसी गुरुभक्ति ? शास्त्राज्ञा का उल्लंघन कर, भले ही तुम ४२ दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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