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ज्ञानसार
वास्तविकता तो यह है कि परोक्ष-पदार्थों को जानने, समझने और परखने के लिए रस- प्रचुरता चाहिए । अदम्य उत्साह चाहिए, प्राणों पर दाव लगाकर दुर्धष संघर्ष करने का साहस चाहिए। तभी शास्त्ररूप दीपक प्राप्त करने की इच्छा जगेगी न ? परोक्ष-पदार्थों का प्रमाण, स्थान, मार्ग, पर्वत-मालाएँ, नदियां, वन, उपवन... साथ ही आवश्यक साधन और सावधानी के बिना, परोक्ष-दुनिया का प्रवास भला कैसे सम्भव है ?
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इसके लिए आवश्यक है शास्त्रज्ञान ! हाँ, शास्त्रज्ञान की प्राप्ति का क्षयोपशम सम्भव न हो तो शास्त्रज्ञानी महापुरुषों का अनुसरण करना हितकर है। उनके आदेश और वाणी को शिरोधार्य करना । तभी तुम परोक्ष अर्थ के भण्डार के निकट पहुँच पाओगे । अरे, द्राविड, वारिखिल्ल और पांडवों के साथ लाखों, करोंड़ो मुनि परोक्ष अर्थ के उच्चतम स्थान पर जा पहुँचे । किस तरह, जानते हो ? ज्ञानी महापुरुषों की सहायता से ! अतः मुनि के लिए शास्त्रज्ञान आवश्यक माना है, वह सर्वथा हेतुपूर्वक ही है ! क्योंकि मुनि तो परोक्ष- विश्व के अनन्य पथिक जो ठहरे।
शुद्धोञ्छाद्यपि शास्त्राऽऽज्ञानिरपेक्षस्य नो हितम् ! भौतहन्तुर्यथा तस्य पदस्पर्शनिवारणम् ॥२४॥६॥
अर्थ : शास्त्रा की आज्ञा की, अपेक्षा से रहित स्वच्छंदमति साधु के लिए शुद्ध भिक्षा वगैरह बाह्याचार भी हितकारी नहीं हैं, जैसे भौतमति की हत्या करनेवाले को उनके पाँवो को स्पर्श न करने की आज्ञा देना है ।
विवेचन : एक घना जंगल !
जंगल में भीलों की छोटी-बड़ी वस्तियाँ ।
उनका राजा भील्लराज ।
भील्लराज ने एक गुरु बनाये । उनका नाम भौतमति । भौतमति बाबा के पास एक सुन्दर छत्र था । वह मयुरपिच्छ का बना हुआ था। देखते ही मन को मोह ले ऐसा । उत्तम कारीगिरी का वह एकमेव अद्भुत नमुना था । एक बार भील्लराज की पत्नी गुरु- दर्शन करने आयी, तो उसने बाबाजी का छत्र देखा ! मन ही मन वह उसे भा गया । उसने भील्लराज से वह छत्र ला देने के लिए कहा ।