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शास्त्र
३५१ आगम के आधार पर । "मेरे प्रभु ने इस तरह से सोचने, समझने और चिंतन करने का आदेश दिया है ।" यह विचार रोम-रोम में समा जाना चाहिए ।
क्षणार्ध के लिए भी जिनेश्वर भगवान का विस्मरण न हो... ! वे (भगवन्त) अचिंत्य चिंतामणि-रत्न हैं । भवसागर के शक्तिशाली जलयान हैं ! एकमेव शरण्य हैं। ऐसे परमकृपालु, दयासिंधु, करूणानिधि परमात्मा का निरंतर स्मरण शास्त्रस्वाध्याय के माध्यम से सतत रहे । शास्त्र का स्मरण होते ही अनायास शास्त्र के उपदेशक परमात्मा का स्मरण होना ही चाहिए ।
जिनेश्वर भगवान का प्रभाव अद्भुत है। राग और द्वेष से रहित परमात्मा, उनका स्मरण करनेवाले आत्मा को दुःख की दाहक ज्वाला से बचाते हैं ! चिन्तामणि रत्न में भला कहाँ रागद्वेष होता है ? फिर भी विधिपूर्वक पूजापाठ और उपासना कर ध्यान करनेवाले की मनोकामना पूरी होती है । परमात्मा का आत्म-द्रव्य ही इतना प्रबल प्रभावी और शक्तिशाली है कि उनका नाम, स्थापनाद्रव्य और भाव से स्मरण करें तो निःसंदेह सर्व कार्य की सिद्धि होती है !
जिनेश्वर भगवान के सुमरन का उत्कट उपाय शास्त्राध्ययन और शास्त्रस्वाध्याय है ! शास्त्र-स्वाध्याय के माध्यम से जिनेश्वर भगवन्त का जो स्मरण होता है, उनकी जो स्मृति जागृत होती है, एक प्रकार से वह अपूर्व और अद्भुत ही नहीं, उसमें गजब की रसानुभूति होती है ।
"आगमं आयरतेण अत्तणो हियकंखिणो।"
तित्थनाहो सयंबुद्धो सव्वे ते बहुमन्निया ॥
"तुम ने आगम का यथोचित आदर-सत्कार किया मतलब आत्महित साधने के इच्छुक एवं स्वयंबुद्ध तीर्थंकरादि सभी का सन्मान-बहुमान किया है।"
वैसे आगम का यथोचित मान सन्मान करने का सर्वत्र कहा गया है । परन्तु शास्त्र को सर्वोपरी मानना / समझना तभी सम्भव है जब आत्मा हित साधने के लिए तत्पर हो । जब तक वह इन्द्रियों के विषय सुखों के प्रति आसक्त हो, कषायों के वशीभूत हो और संज्ञाओं से बुरी तरह प्रभावित हो, तब तक शास्त्र
★ चार निक्षेपों का स्वरुप परिशिष्ट में देखिए।