SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ ज्ञानसार के प्रति अभिरूचि नहीं होती, ना ही शास्त्रों का यथोचित आदरसत्कार सम्भव आज के वैज्ञानिक युग और भौतिकवाद के झंझावात में शास्त्राध्ययन की प्रवृत्ति एक तरह से ठप्प सी हो गई है। शास्त्र के अतिरिक्त ढेर सारा साहित्य उपलब्ध है कि जीव में शास्त्राध्ययन और वांचन की रुचि ही नहीं रहती । आबाल-वृद्ध सभी के समक्ष देश-परदेश की कथा, राज कथा, रहस्य कथा, तंत्रमन्त्र कथा, भोजन कथा, नारी कथा, काम कथा, इत्यादि से संबंधित ढेर सारी पठनीय सामग्री प्रकाशित होती जाती है कि शास्त्र कथाएँ उन्हें नीरस और दकियानूसी खयालात की लगती हैं । शास्त्र कथाएँ सर्वदृष्टि से निरूपयोगी और बकवास मालूम होती हैं। लेकिन जो साधु है श्रमण है और मुनि है, उसे तो शास्त्राध्ययन द्वारा परमात्मा जिनेश्वरदेव की अचिंत्य कृपादृष्टि का पात्र बनना ही चाहिए । अदृष्टार्थेऽनुधावन्तः शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे-पदे ॥२४॥५॥ अर्थ : शास्त्र रुपी दीपक के बिना परोक्ष अर्थ के पीछे दौडते अविवेकी मानव, कदम-कदम पर ठोकर खाते अत्यधिक पीड़ा और दुःख (क्लेश) पाते विवेचन : जो प्रत्यक्ष नहीं है, कान से सुना नहीं जाता, आँखों से देखा नहीं जाता, नाक से सुंघा नहीं जाता, जिह्व से चखा नहीं जाता और स्पर्श से अनुभव नहीं किया जाता... ऐसे परोक्ष पदार्थों का ज्ञान भला, तुम कैसे पा सकते हो ? न जाने कब से तुम भटक रहे हो ? कितनी ठोकरें खायी है ? कितनी पीडा और क्लेश सहना पड़ा है ? अरे भाग्यशाली और कितना भटकोगे ? ऐसे परोक्ष पदार्थों में मुख्य पदार्थ है आत्मा । परोक्ष पदार्थों में महत्त्वपूर्ण पदार्थ है मोक्ष । ठीक वैसे ही परोक्ष पदार्थों में नरक, स्वर्ग, पुण्य, पाप, महाविदेहादि अनेक क्षेत्र... आदि अनेक पदार्थों का समावेश होता है । इन परोक्ष पदार्थों की अद्भुत सृष्टि का एकमेव मार्ग दर्शक (Guide) है शास्त्र । परोक्ष पदार्थों को
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy