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________________ ३५० ज्ञानसार की भावना पैदा कर क्या नेता अभिनेताओं के प्रति सन्मान की दृष्टि प्रस्थापित कर, मानवसमाज को सुधार रहे हो ? यह तुम्हारी कैसी अज्ञानदशा है ? वास्तव में वीतराग भगवन्त के वचन / वाणी रूपी शास्त्रों को स्वदृष्टि बनानेवाला मानव ही आत्महित और परहित साधने में समर्थ है। शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद् वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन् नियमात् सर्वसिद्धयः ॥२४॥४॥ अर्थ : शास्त्र का पुरस्कार करना मतलब वीतराग का पुरस्कार करना और वीतराग का पुरस्कार यानी निश्चित ही सर्व सिद्धि प्राप्त करना । विवेचन : शास्त्र-वीतराग । जिसने शास्त्र माना उसने वीतराग का स्वीकार किया ! जिसने वीतराग की हृदय-मन्दिर में प्रतिष्ठा की उसके साथ सर्व कार्य सिद्ध हो गये ! यह कैसी विडम्बना है कि शास्त्र का स्मरण हो और उसके कर्ता का विस्मरण? सरासर झूठ है । कर्ता का स्मरण अवश्य होगा । एक बार वीतराग को स्मृति पथ में ले आये कि समझ लो उनकी सारी शक्ति तुम्हारी खुद की हो गयी। तब भला, ऐसा कौन सा कार्य है, जो वीतराग की अनन्त शक्ति के सामने असाध्य है ? पूज्यपाद् हरिभद्रसूरिजी ने अपने 'षोडशक' ग्रन्थ में कहा है : अस्मिन हृदयस्थे सति हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनिन्द्र इति । हृदयस्थिते च तस्मिन् नियमात सर्वार्थसिद्धयः ॥ "जब तीर्थंकर प्रणीत आगम हृदय में हो तब परमार्थ में तीर्थंकर भगवन्त स्वयं हृदय में विराजमान हैं, क्योंकि वे उसके स्वतंत्र प्रणेता हैं । इसी तरह तीर्थंकर भगवन्त साक्षात् हृदय में हैं तब सकल अर्थ की सिद्धि होती ही है । जो कुछ बोलना, सोचना, समझना और चिंतन करना वह जिन प्रणीत
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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