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________________ ३४८ ज्ञानसार अर्थ : हितोपदेश करने के साथ साथ उसकी रक्षा के सामर्थ्य से पडितगण 'शास्त्र' शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं । अत: उक्त शास्त्र को वीतराग का वचन कहा जाता है। अन्य किसीका नहीं । विवेचन : वीतराग का वचन अर्थात् शास्त्र ! रागी और द्वेषी व्यक्ति के वचन 'शास्त्र' नहीं कहलाते । ऐसा व्यक्ति कितना भी दिग्गज विद्वान् हो, कुशाग्र बुद्धि का धनी हो, लेकिन वीतराग-वाणी की अवहेलना कर स्वयं की कल्पना एवं मान्यतानुसार ग्रन्थों का आलेखन करता हो, उसे शास्त्र नहीं कहते । क्योंकि कोई भी शास्त्र क्यों न हो, वह आत्म-हित का उपदेश करता है । सभी जीवों की रक्षा-सुरक्षा का आदेश देता है । शब्दशास्त्र के अनुसार 'शास्त्र' शब्द के निम्नांकित दो अर्थ ध्वनित होते शासनसामर्थ्येन च संत्राणबलेनानवद्येन ! युक्तं यत् तच्छास्त्रं तच्चैतत् सर्वविद्वचनम् ॥ - प्रशमरति । 'शास्त्र वही है, जिसमें हितोपदेश देने का सामर्थ्य और निर्दोष जीवों की रक्षा की अपूर्व शक्ति हो और वही सर्वज्ञ का वचन है, वाणी है । सर्वज्ञ वीतराग की वाणी में उपरोक्त दोनों तथ्यों का समावेश है। उनकी मंगलवाणी आत्म-हित का उपदेश प्रदान करती है और निर्दोष जीवों की निरंतर रक्षा करती है। राग-द्वेष से उदंड चित्तवाले जीवों का सम्यग् अनुशासन करनेवाले शास्त्र को नहीं माननेवाले मनुष्य को जरा पूछिए : • "आत्मा को चर्मचक्षु से देखने का आग्रही प्रदेशी राजा जीवित जीवों को चीर कर आत्मा की खोज कर रहा था, सजीव जीवों को लोहे की पेटी (बक्से) में बन्ध कर.. मौत के घाट उतारता था। ऐसे क्रूर और पैशाचिक प्रयोग करनेवाले प्रदेशी राजा को भला किसने दयालु बनाया ? केशी गणधर ने ! जिन वचनों । शास्त्रों का आधार लेकर प्रदेशी का हृदयपरिवर्तन कर जीवरक्षक बनाया।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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