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शास्त्र
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अब तुम जहाँ हो, उसीको ध्यान से देखो। इसे 'मध्यलोक' कहते हैं। शास्त्रचक्षु के माध्यम से इसे भलीभाँति देखा जा सकता है। एक लाख योजन का जम्बुद्वीप.... उसके आस-पास दूर सुदूर तक दो लाख योजन परिधि में फैले 'लवण समुद्र' के इर्द-गिर्द है 'घातकी खंड!' इसका क्षेत्रफल चार लाख योजन है। उसके बाद कालोदधि समुद्र... पुष्कर द्वीप... फिर समुद्र, फिर द्विप, इस तरह मध्यलोक में असंख्य समुद्र और द्वीप फैले हुए हैं। अन्त में 'स्वयंभूरमण समुद्र' है।
चौदह राजलोक की अद्भुत और अनोखी रचना देखी ? उसके सामने खडे होकर यदि तुम उसे देखो तो उसका आकार कैसा लगेगा / जिस तरह कोई मानव अपने दो पाँव फैलाकर और दो हाथ कमर पर रखकर अदब से चुपचाप खडा हो ! क्यों हूबहू ऐसा लगता है न ?
यह चौदह 'राजलोक' है ।* 'राजलोक' क्षेत्र का एक माप है ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय, ये पाँच द्रव्य शास्त्रदृष्टि से अच्छी तरह देखे जाते हैं।
___ जब श्रुतज्ञान के क्षयोपशम के साथ अचक्षु दर्शनावरण का क्षयोपशम जुडता है, तब शास्त्रचक्षु खुलते हैं और विश्वदर्शन होता है । विश्वरचना, विश्व के पदार्थ और पदार्थों के पर्यायों का परिवर्तन आदि का चिंतन-मनन ही 'द्रव्यानुयोग'* का चिंतन है। द्रव्यानुयोग के चिंतन-मनन से कर्म-निर्जरा (क्षय) बहुत बड़े पैमाने पर होती है। मानसिक अशुभ विचार और संकल्प ठप्प हो जाते हैं । परिणामस्वरुप विश्व में घटित अद्भुत घटनाएँ, अकस्मात एवं प्रसंगोपात उत्पन्न होनेवाले आश्चर्य, कुतूहल आदि भाव रुक जाते हैं । आत्मा स्थितप्रज्ञ बन जाती है। अतः हे मुनिराज ! तुम अपने शास्त्रचक्षु खोलो । साथ ही ये मुंद न जाएँ, बन्ध न हो जाएँ इसकी सदैव सावधानी रखो । शास्त्र चक्षु का दर्शन अपूर्व आनन्द से भर देगा ।
शासनात् त्राणशक्तेश्च बुधैः शास्त्रं निरुच्यते । वचनं वीतरागस्य तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ॥२४॥३॥
★ देखिए परिशिष्ट
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