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________________ ३४४ ज्ञानसार नहीं हो, अपितु शास्त्रज्ञानी हो... । तुम्हें जो कुछ जानना और देखना है, वह शास्त्र की आँखो से ही देखना और जानना है ! सिद्ध भगवन्तों का एक नेत्र केवलज्ञान है और दूसरा केवल दर्शन ! वे इन नयनों के माध्यम से ही चराचर विश्व को देखते हैं और जानते हैं ! जबकि मुनिराजों का शास्त्र ही चक्षु है । अतः सदैव अपनी आँखों को खुली रखकर ही विश्व-दर्शन करना, दुनिया दारी को जानना ! यदि आँखे बन्ध कर देखने जाओगे तो भटक जाओगे... 1 मुनि की दिनचर्या में २४ घंटे में से १५ घंटे शास्त्र -स्वाध्याय के लिए है ! ६ घंटे निद्रा के लिए रखे गये हैं, जबकि ३ घंटे आहार-विहार और निहार के लिये निश्चित हैं । शास्त्राध्ययन के बिना शास्त्रचक्षु खुलती नहीं । शास्त्रचक्षु नयी खोलने की है। उसके लिए विनयपूर्वक सद्गुरुदेव के चरणों में स्थिर हो, शास्त्राभ्यास करना पड़ता है और अभ्यास करते हुए यदि किसी प्रकार की शंका-कुशंका मन में जन्मे तो उनके पास विनम्र बन अपनी शंका का निराकरण करना चाहिए । नि:शंक बने शास्त्र - पदार्थों का विस्मरण न हो जाएँ अतः बार-बार उनका परावर्तन करना चाहिए। परावर्तन से स्मृति स्थिर बन जाती है । तब उन पर चिंतन, मनन करना चाहिए। शास्त्रोक्त शब्दों का अर्थ-निर्णय करना है । विभिन्न 'नयों' से उसका विश्लेषण करना है और रहस्य तक पहुँचना है । ऐसा भी होता है कि एक ही शब्द अलग-अलग स्थान पर अर्थ-भेद प्रदर्शित करता है, उसे पूरी तरह से समझना चाहिये ! ठीक वैसे ही एक ही अर्थ सर्वत्र काम नहीं आता ! उसका निर्णय, तत्कालीन द्रव्य, क्षेत्र और काल के माध्यम से करना चाहिए और तत्पश्चात् अन्य जीवों को उसका अर्थ-बोध कराने का कार्य आरम्भ करना चाहिए ... I परमात्मा जिनेश्वरदेव के धर्मशासन में किसी एक ग्रन्थ अथवा शास्त्र का पठन-पाठन करने से तत्त्वबोध नहीं होता, ना ही कोई काम चलता है । अन्य धर्मों में, सारांश एकाध धर्मग्रन्थ में उपलब्ध होता है, जैसे : गीता, बाइबल और कुरान । लेकिन जैनधर्म का सार एक ही ग्रन्थ तक सीमित हो जाएँ इतना वह संक्षिप्त नहीं है । जैनधर्मप्रणित पदार्थज्ञान, जीवविज्ञान, खगोल और भूगोल, I
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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