SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शास्त्र ३४५ मोक्षमार्ग, शिल्प और साहित्य, ज्योतिषादि ज्ञान-विज्ञान इतना तो विस्तृत और विशाल-विराट है कि उसका संक्षेप किसी एक ग्रन्थ में समाविष्ट होना असम्भव है। कई लोग, जानना चाहते हैं कि भगवद् गीता, बाइबल और कुरान की तरह क्या जैनधर्म का भी कोई एक प्रमाणभूत ग्रन्थ है ? प्रत्युत्तर में उन्हें कहना पड़ता है कि जैनधर्म सम्बंधित ऐसा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। जैनधर्म का अध्ययन, मनन और चिंतन करने के लिए व्यक्ति अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग खर्च करे, व्यतीत करे, तभी इसकी गरिमा, ज्ञान और सिद्धांतो को समझ सकेगा। साधु-मुनिराज के पीछे धनोपार्जन, भवन-निर्माण, परिवार-परिजनों की देख भाल आदि किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती । भारत की प्रजा... उसमें भी विशेष रूप से जैनसंघ, मुनि की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति भक्तिभाव से करता है । अतः श्रमणों का एक ही कार्य रह जाता हैं पंचमहाव्रतमय पवित्र जीवन जीना और शास्त्राभ्यास करना । इसके अतिरिक्त उन्हें किसी भी बात की चिंता नहीं, परेशानी नहीं । चर्मचक्षु की महत्ता से बढकर शास्त्र-चक्षु की तेजवस्विता का मूल्यांकन करना चाहिए । जितनी चिंता और सावधानी चर्मचक्षु के सम्बन्ध में बरती जाती है, उससे अधिक चिंता और सावधानी शास्त्रचक्षु के सम्बन्ध में लेनी आवश्यक है। शास्त्र-दृष्टि के प्रकाश में विश्व के पदार्थ स्वरुप का दर्शन होगा, भ्रांतियों के बादल बिखर जाएँगे और विषय कषायों के विचारों से लिप्त चित्त को परम मुक्ति का साक्षात्कार होगा। इसलिए शास्त्रचक्षु प्राप्त कर उसका जतन करो । पुरःस्थितानिवोधिस्तिर्थगलोकविवर्तिनः ! सर्वान् भावानवेक्षन्ते ज्ञानिनः शास्त्रचक्षुषा ॥२४॥२॥ अर्थ : ऊर्ध्व अधो एवं तिछालोक में परिणत सर्व भावों को साक्षात् सम्मुख हो इस तरह, अपने शास्त्ररुपी चक्षु से ज्ञानी पुरुष प्रत्यक्ष देखते हैं । विवेचन : चौदह राजलोक का शास्त्रदृष्टि से साक्षात्कार ! मानो चौदह राजलोक प्रत्यक्ष सामने ही न हो ! शास्त्रदृष्टि की ज्योतिकिरण ऐसी तो प्रखर, प्रकाशमय और व्यापक है ! उसमें सर्व भावों का दर्शन होता है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy