________________
३४२
ज्ञानसार
आत्मा के प्रति ममत्व-भाव का सदैव अभाव रहेगा और अन्य पदार्थों की प्राप्ति का ममत्व तुम्हें शान्त और स्वस्थ नहीं रहने देगा। ___गुण के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखना । मत्सर अर्थात् गुण-द्वेष । गुण द्वेष टालने के लिए गुणीजनों का द्वेष न करना । सदैव ध्यान रहे, छद्मस्थ आत्माएँ भी गुण-शाली होती हैं । अनंत दोषों के उपरान्त भी सिर्फ गुण ही देखने के हैं। गुणानुरागी अवश्य बनना, गुण-द्वेषी नहीं । गुणवान के दोष देखने पर भी उसके द्वेषी न बनना । द्वेषी बनोगे तो तुम स्वयं अशान्त बन जाओगे ।
हाँ, जिन गुणों का तुम में पूर्णतया अभाव है, उन गुणों का दर्शन यदि अन्य आत्माओं में हो तो तुम्हें विनम्र भाव से उसका अनुमोदन करना है। यदि गुणद्वेषी बन किसी के दोषों का अनुवाद करोगे तो तुम कदापि सुख से रह नहीं सकोगे । तुम्हारा मन हमेशा के लिए अशान्त, उद्विग्न और क्लेशयुक्त बन जाएगा।
___ यदि तुम गुणवान्, जीवों की निंदा, टीका, टिप्पणी न करो तो नहीं चलेगा? क्या निंदा करने से तुम्हारी महत्ता बढ जाएगी? क्या दोषानुवाद करने से तुम अपना आत्मोकर्ष कर पाओगे? इससे तुम्हारे अध्यवसाय शुद्ध-विशुद्ध हो जायेंगे ? क्यों व्यर्थ में ही अशान्त और उद्विग्न बनने का काम कर रहे हो? इससे कोई लाभ होनेवाला नहीं है। इससे तो बेहतर है कि तुम सदा-सर्वदा सतरह प्रकार के संयम से युक्त जीवन में मस्त बने रहो । द्रोह, ममता और मत्सर को गहरी खाई में फेंक दो । लोग भले ही उसमें मस्त बन, आकण्ठ डूब कर, अपने आपको कृतकृत्य मानते हो, लेकिन तुम्हें उसका शिकार नहीं बनना है। कीचड़ में, गंदे-पानी के प्रवाह में सुअर लोटता है, हंस नहीं । सदा खयाल रहे, तुम हंस हो ! राजहंस ! ऐसी लोक संज्ञा के भोग तुम्हें कदापि नहीं होना है ! अतः तुम्हारे लिए लोक संज्ञा का परित्याग श्रेयस्कर है ।